धनके त्यागके विषयमें योग्य दृष्टिकोण


लक्ष्मीकी कृपा हमारे घर एवं कुलपर सदैव रहे, ऐसी हमारी इच्छा है तो अपनी आयका दशांश ईश्वरीय कार्यमें प्रतिमाह अवश्य अर्पण करना चाहिए । इससे पितर और अनिष्ट शक्तियोंद्वारा होनेवाले धनहानिसे हम सरलतासे बच सकते हैं, साथ ही घरमें रोग और शोकके प्रमाण घट जाते हैं । खरे संत परमेश्वरके सगुण रूप होते हैं । अतः संतोंके कार्यमें धन अर्पण करनेसे हमारा संचित घटता है, अर्थात पाप और पुण्यका वह भाग जो हमें अगले जन्मोंमें भोगना है, वह नष्ट होता है और हम ईश्वरीय कृपाके पात्र बनते हैं । जैसा कि स्कन्द पुराणमें लिखा है, ईश्वरीय कार्यमें धन अर्पण करनेसे धन शुद्ध होता है; अतः जब हम भावनावश किसी अनाथालयमें या किसी दरिद्रको दान देते हैं, या पाठशाला या रुग्णालय बनवाते हैं, तो हमें पुण्य मिलता है और उसे भोगनेके लिए हमें पुनः जन्म लेना पडता है । साधकको यह प्रयास करना चाहिए कि न ही नए पापकर्म और न ही नए पुण्यकर्म निर्माण हों; क्योंकि अध्यात्मशास्त्र अनुसार, पापको “पापात्मक पाप” और पुण्यको “पुण्यात्मक पाप” माना गया है, अर्थात दोनों ही बेडियां हैं, एक लोहेकी और दूसरी सोनेकी । अतः धनके त्यागका सरलसा शास्त्र जान लें, जिसमें त्यागकी प्रवृत्ति नहीं है, उसे भावनावश दरिद्रको, अनाथको, भिखारीको दान देनेका प्रयास करना चाहिए । जो इस प्रकारका त्यागकर रहा है, उसे अगले चरणमें जाना चाहिए और संतोंको निरपेक्ष भावसे दान करना चाहिए । संतको हमारे धनकी आवश्यकता नहीं होती, उनके घर अष्ट महासिद्धियां खेलती हैं । अतः वे हमारा अंश मात्र धन स्वीकारकर, हमें कृतार्थ करते हैं । इस भावसे संतको धन अर्पण करना चाहिए । ‘तेरा तुझको अर्पण’, यह भाव रख संतोंको (अपने गुरुको) प्रति माह यथासंभव तन, मन व धनका त्याग करना चाहिए और जब यह त्याग १०% से ५५% पहुंच जाता है, तभी कोई उच्च कोटिके संत हमें शिष्यके रूपमें स्वीकार करते हैं । – तनुजा ठाकुर



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