उपदेशककी वाणीमें चैतन्य ही समाजको प्रत्यक्ष कृति करनेकी और सुधरनेकी प्रेरणा देता है !!!


कुछ दिवस पूर्व मैं विदेशमें एक मन्दिरमें प्रवचन ले रही थी, उस मन्दिरके पुजारीने मेरे प्रवचनके मध्यमें मुझे रोककर मुझे कुछ बतानेके लिए कहा, मैंने स्वीकृति दी । दस मिनटके पश्चात् पुनः वे मुझे टोक कर बोलने लगे आप इन्हें जन्मदिनमें ‘केक काटने’के लिए मना करें; क्योंकि मैं कहता हूं तो कोई मानते नहीं ! अब जिस पुरोहितको इतना पता नहीं कि प्रवचनके मध्यमें बार-बार नहीं बोलना चाहिए; क्योंकि इससे अध्यात्मविद्का ईश्वरीय तत्त्वसे प्रवाह टूट जाता है, ऐसे अहंकारी पण्डितकी बात कौन सुनेगा ? उपदेशककी वाणीमें चैतन्य ही समाजको प्रत्यक्ष कृति करनेकी और सुधरनेकी प्रेरणा देता है, यदि उपदेशककी वाणीमें चैतन्य न हो तो वह कितना भी प्रयास करे, समाज इस कानसे उसके उपदेशको सुनकर दूसरे कानसे निकाल देगा; अतः जो समाजमें कुछ सुधार चाहते हैं वे अपनी साधनाको बढानेको प्राथमिकता दें ! जिनकी करनी और कथनीमें अंतर होता है उनकी वाणीमें चैतन्य नहीं होता, यह एक शाश्वत सिद्धान्त है ! -तनुजा ठाकुर



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