अध्यात्म, मात्र गेरुआ वस्त्र धारण करना नहीं है


कुछ साधक यह नहीं समझते कि अध्यात्म, मात्र गेरुआ वस्त्र धारण करना नहीं है, मनको साधना, ही साधना है । एक सन्यासीने मुझे पत्राचार कर पूछा है कि इतने वर्ष सन्यास दीक्षा लेनेके पश्चात भी उन्हें इतना कष्ट क्यों है ? उन्होंने लिखा है कि अब वे साठ वर्षके हो गए हैं, अब वे स्वयंको अकेला और असुरक्षित अनुभव करते हैं ! दूसरे एक सन्यासीसे मिली, मैं उन्हें पिछले पंद्रह वर्षोंसे जानती हूं, उन्होंने कई गुरु धारण किए, सन्यासी वस्त्र, जटाएं भी बढा लीं; परंतु मनमें वही अशान्ति, वही असुरक्षितता, वही लोकैषणा और वही भटकाव आज भी स्पष्ट रूपसे दिखाई देता है, जो आजसे अनेक वर्ष पूर्व दिखाई देता था ! गेरुआ वस्त्र और सन्यास दीक्षा, यह सब ईश्वरको पानेका साधन है; परंतु जब साधन साध्य बन जाए तो जीवनका दिशाभ्रम होना स्वाभाविक है ! जीवनमें भय, असुरक्षितताका प्राबल्य यह स्पष्ट रूपसे बताता है कि साधक अपने ध्येयसे भटक गए हैं; अतः तनको आध्यात्मिक दृष्टिसे सजानेके साथ ही मनको सजानेपर ध्यान देना आवश्यक है । -तनुजा ठाकुर



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