एक बार एक सन्यासी जी मुझसे मिले और जब उन्होंंने देखा की मैं स्वयंके चूक और अन्य साधकोंके चूक सबके समक्ष बताती हूंं तो वे थोडे डर गए और मुझसे बोले “देवी जी मेरे चूक सार्वजनिक स्तर पर न बताईगा ” मैंने कहा, ” निश्चिंत रहें मैं आपका नाम लेकर आपके चूक कभी नहीं बताऊंंगी” अब स्वामीजी को कौन बताए कि जब तक हम अपने अहंको बचाने का प्रयत्न करेंगे ईश्वर हम से कोसों दूर रहेंगे ! कबीर दास जी ने कहा है:
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं ।। -संत कबीर
अर्थ : अहंकार और ईश्वर एक साथ नहीं रह सकते, संत उसीको कहते हैं जिसमें अहं न हो ! अहंके रहते ईशका वास संभव नहीं !
भावार्थ : प्रत्येक जीव ईश्वरका अंश होते हुए अहं ब्रह्म अस्मि का बोध नहीं कर पाता और इसका मुख्य कारण अहं होता है ! अतः साधकों ने अहंको रता से प्रयत्न करने चाहिए ! अपने चूक को सबके समक्ष बताने से और स्वीकार करने से हमारा अहम कम होता है और अंतर्मुखता बढती है -तनुजा ठाकुर
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