ऐसे हैं हमारे श्रीगुरु !


न दी दीक्षा, न दिया विधिवत गुरुमन्त्र ।
एक दृष्टिसे ही डाला हृदयमें
अखण्ड नामजपका सूक्ष्म भावयन्त्र ।।
देखें ऐसे अनेक गुरु ।
एकत्रित कर भीड देते हैं गुरुमन्त्र ।
तथापि न सिखा पाते अध्यात्मका गूढ तन्त्र ।।
दे दिया ज्ञान स्थूल और सूक्ष्म अध्यात्मका ।
दिए बिना ही गुरुमन्त्र ।।
हैं ऐसी ऊंचाईपर हमारे श्रीनाथ ।
शिष्यको पूर्ण करने हेतु ।
न आवश्यक है उनके लिए गुरुमन्त्रका बन्धन ।
अहो ! ऐसे श्रीगुरुकी कैसे करुं मैं वन्दन ?

मैं उनका करुं कार्य इसकी अपेक्षा
कैसे बढे मेरा आध्यात्मिक सामर्थ्य ।
इसकी दी उन्होंने सतत् आज्ञा ।
सिखा दी चारों वर्णोंकी सेवा ।
अब पा रही उसका मैं मेवा ।।
न रहे अपरिपूर्ण उनका शिष्य ।
इसका रहा उन्हें सदैव भान ।
भिन्न माध्यमोंसे दिए अध्यात्मका ज्ञान ।।
जिन्होंने दी सतत अखण्ड आनन्दकी अनुभूति ।
सहज सिखाई ज्ञानोत्तर भक्ति ।।
जिनका वर्णन करते हैं वेदान्त और श्रुति ।
ऐसे श्रीगुरुकी कृपाकी कैसे करुं अभिव्यक्ति ?

करुं उनकी सगुण उपासना ।
रहे सदैव उनके ही चरणोंका स्मरण ।।
मिलता था आनन्द रहनेमें द्वैतमें ।
तथापि प्रयासरत रहें मिले मुझे
अद्वैतकी अनुभूति ।।
ऐसे श्रीगुरुकी कृपाका ।
कैसे करुं शब्दोंमें वर्णन ?
जिन्होंने दे दी ।
सगुण-निर्गुणकी एक साथ प्रतीति ।।

क्षात्रतेजका लहराया ऐसा ध्वज ।
अचम्भित रह गयी देख उनके शौर्यको ।।
ऐसे ही होते हैं पूर्ण पुरुष ।
सर्व दृष्टिसे पूर्णरूपेण सक्षम ।।
ब्राह्मतेज और क्षात्रतेजका किया ऐसा शंखनाद ।
कांपने लगे असुर, मची हुंकार ब्रह्माण्डमें ।
रंग गया मन उनके इस अद्वितीय विचारसे ।
अब तो कुछ भी सूझे न सखी ।
बस रंग दूं इस धराको उनके ही रंगमें ।।
– तनुजा ठाकुर (५.९.२०१२)



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