साधना, साधक एवं उन्नतसे सम्बन्धित प्रसार संस्मरण (भाग – १)


शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति हेतु क्या करना चाहिए ?
अनेक लोग आजकल दूरभाषपर ज्ञान पाना चाहते हैं तो कुछ लोग दूरभाषपर ही साधना सीखना चाहते हैं । अध्यात्ममें शब्द्जन्य ज्ञानका महत्त्व मात्र २ प्रतिशत और वह, वैदिक सनातन धर्ममें इतना अनन्त है कि यदि कोई जिज्ञासु अपना सम्पूर्ण जीवन मात्र धर्मग्रन्थों वाचनमें निकाल दे तो भी वह अपने जीवनकालमें सारे धर्मग्रन्थों, उनके टीका या भाष्यको नहीं पढ पाएगा; आत्मसात करनेकी बात या उसे कंठस्थ करनेकी बात तो रहने ही दें । सनातन धर्मका ज्ञान एक महासागर समान है और इस ज्ञानका स्थूल पक्ष मात्र २ प्रतिशत है । अर्थात् समाजमें सर्वत्र जो अध्यात्मिक ज्ञानक रुपी सागर दिखाई देता है वह मात्र ज्ञान रुपी महासागरका सतही परत है ।  खरे ज्ञानकी जिसे प्राप्ति करनी होती है, उसके लिए लघु पथ है, उस सर्वज्ञ ईश्वरसे एकरूप होना और उसके लिए किसी ब्रहमज्ञानीके शरणागत होना, उनके बताए अनुसार साधना करना, उनकी सेवा करना, उनके कार्य निमित्त सर्वस्व अर्पण करना, यह सर्वश्रेष्ठ साधन है ।
धर्मप्रसारके मध्य भारत ही नहीं अपितु विश्वके अनेक देशोंमें जाना हुआ है और इसी क्रममें ईश्वरीय कृपा अनुरूप अनेक साधकों, उन्नतों, सिद्धों, तपस्वियों एवं सन्तोंसे भेंट ही नहीं हुई, अपितु उनका सान्निध्य भी प्राप्त हुआ । मूलत: शोध करनेकी वृत्ति एवं सूक्ष्म इन्द्रियोंके जागृत होनेसे मुझे ऐसे लोगोंकी साधना पद्धति, आध्यात्मिक स्तर एवं उनका साधनामें प्रवास इत्यादि जाननेका सौभाग्य मिला है और इससे मुझे दो बातें स्पष्ट ध्यानमें आईं –
१. ज्ञानप्राप्ति या ईश्वरप्राप्ति या मोक्षप्राप्ति हेतु जो जीव नम्र होता है, जिसमें सीखनेकी जिज्ञासा होती है, उसे ईश्वर श्रेष्ठ गुरुके माध्यमसे ज्ञान देते हैं और वह साधनापथपर द्रुत गतिसे अग्रसर होता है ।
२. योग्य गुरुके शरणागत होकर जो गुरुको जो अपेक्षित है, उसे करता है, उसकी आध्यात्मिक प्रगति सभी मार्गोंकी साधकोंकी अपेक्षा अधिक शीघ्र होती है । कई बार मैं ऐसे साधकोंसे मिली जो घर-संसार छोडकर साधना करते हैं, कोई अनेक कोटि गायत्रीका जप करता है, कोई अनेक बार नर्मदाकी परिक्रमा करता है तो कोई अनके ग्रंथोंको कंठस्थ कर उसका विवेचन बहुत ही विद्वतापूर्वक करता है; किन्तु साधनामें उसकी कोई विशेष प्रगति नहीं हुई होती है, वह अनके वर्षोंसे जहां जिस आध्यात्मिक स्तरपर है उसीपर स्थिर रहता है या बहुत ही अल्प प्रमाणमें प्रगति होती है अर्थात् बहुमूल्य मनुष्य जीवन यूं ही व्यर्थ हो जाता है ।
मुझे क्या अच्छा लगता है, इसका अध्यात्ममें कोई स्थान नहीं है अपितु ईश्वरको मुझसे क्या अपेक्षित है, साधकके लिए यह करना आवश्यक होता है । इसीलिए साधकने साधनाके आरम्भिक कालमें ही किसी अध्यात्मविद या गुरुसे पूछकर लेना चाहिए कि उसके लिए योग्य साधना क्या है और वह शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति हेतु क्या करे ? अन्यथा यह मनुष्य जीवन अपने मनके अनुसार कृति करनेमें ही निकल जाता है और हाथ कुछ नहीं आता है; अतः समय रहते ही अपनी अल्प बुद्धिको किसी सन्तके चरणोंमें अर्पण कर, उनके मार्गदर्शन अनुसार साधना कर विश्वबुद्धिसे एकरूप होनेका प्रयास करना चाहिए । अनेक लोग मुझसे पूछते हैं कि आप कौन सी साधना करती हैं, मेरा बडा ही सरल सा उत्तर होता है, “वही जो मेरे श्रीगुरुको मुझसे अपेक्षित है ।” इसका एक उदहारण देती हूं । मैं मूलत: ध्यानमार्गी हूं: अतः स्वाभाविक है कि ध्यान करना मुझे प्रिय है; तथापि ईश्वर और गुरु दोनोंकी आज्ञा है कि मैं लेखन करूं; अतः ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर ध्यानकी साधना छोडकर प्रतिदिन लेखन करती हूं, जिसे आपसब पढते है, इसमें मैं दिनांक डालती हूं, जिसके माध्यमसे मैं अपने श्रीगुरु और ईश्वर दोनोंको ही यह ब्यौरा देती हूं कि आपने मुझे जो सेवा दी है उसे मैं यथाशक्ति करनेका प्रयास कर रही हूं । दिनांकवाली बात मैं इसलिए बता रही हूं; क्योंकि एक जिज्ञासुने पूछा है कि आप अपने लेखमें दिनांक क्यों डालती हैं ? लेखोंमें दिनांक डालकर, मैं अपनी साधनाका ब्यौरा मेरे श्रीगुरुको सूक्ष्मसे देती हूं क्योंकि वे मेरा ब्यौरा प्रत्यक्षमें नहीं लेते हैं; किन्तु सितम्बर १९९९ में श्रीगुरु, एक साधकको बता रहे थे कि अपनी साधनाका ब्यौरा अपने गुरु या उन्नत साधकको देनेसे अहम् नहीं बढता है और हमें ध्यान रहता है कि हम किसीसे संरक्षणमें साधना कर रहे हैं । मैं भी सदैव उस ईश्वर या अपने श्रीगुरुके संरक्षणमें रहना चाहती हूं; अतः उन्हें यह बताती रहती हूं कि आपको जो अपेक्षित सेवा है, उसे करनेका प्रयास कर रही हूं ।
मेरी सेवा मनानुसार न हो, इस हेतु मैंने सदैव ही एक प्रार्थना की है जो इसप्रकार है, “हे गुरुदेव मेरी अल्प बुद्धि, मेरी साधनामें बाधक नहीं अपितु पोषक बने एवं जो आपको या ईश्वरको अपेक्षित है, मुझसे वही होने दें एवं जो मुझे प्रिय है; किन्तु मेरी साधना हेतु पोषक नहीं, वह कभी भी मुझसे न हो, ऐसे आपके श्रीचरणोंमें प्रार्थना है ।” इस प्रार्थनासे मेरे जीवनमें ऐसे अनेक प्रसंग घटित हुए हैं, जिसने मुझे शारीरिक एवं मानसिक कष्ट हुए हैं; किन्तु ईश्वरीय कृपाके कारण मैं उससे त्वरित बाहर भी निकल गई और ईश्वरको जो अपेक्षित था, उसे करनेसे मेरी अध्यात्ममें प्रगति शीघ्र हुई और आजमें आनन्दमें हूं । – तनुजा ठाकुर (२०.१०.२०१७)



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