साधना, साधक एवं उन्नतसे सम्बन्धित प्रसार संस्मरण (भाग – २)


धर्मप्रसारके मध्य ऐसे अनेक विद्वतजनोंसे मेरा साक्षात्कार हुआ है जिनके पास मात्र शाब्दिक तत्त्वज्ञान होते हैं । आद्य गुरु शंकराचार्यने विवेक चूडामणिमें कहा है ‘शब्दजालं महारण्यं चित्त भ्रमणकारणं, अर्थात् शब्दोंका ज्ञान यदि आत्मसात न किया जाए तो तथाकथित तत्त्वज्ञानी व्यक्ति, तत्त्वज्ञानके शब्द रुपी जालमें फंसे हुए दिखाई देते हैं । आजका संस्मरण इस तथ्यसे ही सम्बन्धित है ।
अक्टूबर १९९९ में झारखण्डके (उस समय बिहार था) बोकारो जनपदमें धर्मप्रसारकी सेवा कर रही थी । एक दिवस एक देवालयमें (मंदिरमें) साप्ताहिक सत्संगके पश्चात् एक स्त्रीके आग्रह करनेपर, मैं उनके घर गई । वे बोकारो इस्पात उद्योगके एक उच्च पदस्थ अधिकारीकी अल्प शिक्षित पत्नी थीं; किन्तु वे स्वयं विनम्र एवं हंसमुख थीं । वे अपने पतिके विषयमें बताते हुए कह रही थीं कि उन्हें अध्यात्ममें बहुत रुचि है और उन्हें सम्पूर्ण गीता कंठस्थ है; इसलिए उन्हें आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगेगा । यथार्थमें मुझे साधकों या  उन्नतोंसे मिलना अच्छा लगता है; क्योंकि ईश्वर उनके माध्यमसे मुझे कुछ न कुछ सिखा ही देते हैं ।
मैं उनके घर गयी और जब उनकी पत्नीने मुझे अपने पतिसे मिलवाया तो उनके हाव-भावसे स्पष्ट ज्ञात हुआ कि उनकी पत्नी ‘मुझ जैसी एक सामान्य वेशभूषावालीसे’  धर्म और अध्यात्म सीखे, यह उन्हें  स्वीकार्य नहीं था । वे मुझसे पूछने लगे, आप क्या सिखाती हैं ? हम जो सत्संगमें बताते हैं, उसे संक्षेपमें मैंने दो मिनिटोंमें बता दिया । वे मेरे बताये हुए तथ्योंसे संतुष्ट नहीं हुए और अपने ज्ञानका प्रदर्शन करते हुए गीतापर भाष्य करने लगे । मैं शांत होकर उनकी बातें सुनने लगी । उत्तर भारतमें धर्मप्रसार करने हेतु एक आवश्यक गुण आपमें होना ही चाहिए और वह है आपने एक अच्छा श्रोता होना चाहिए ! जब वैदिक उपासना पीठके आश्रममें भी कोई भी नए जिज्ञासु या साधक आते हैं तो प्रथम कुछ दिवस वे मुझे ही सिखाते रहते हैं और मैं शांत होकर उनसे सीखती रहती हूं । कुछ दिवस पश्चात् जब उनकी शंकाओं, कष्टों और दोषोंका पिटारा खुल जाता है तो ही उन्हें मैं कुछ सिखाना आरम्भ करती हूं; इसलिए मैं कहती हूं कि यहां गुरु, अधिक और साधक कम हैं !
उस दिवस भी अधिकारी महोदय मुझे प्रवचन दे रहे थे और मैं एवं उनकी पत्नीद्वारपर खडी होकर सब सुन रहे थे । आधे घंटे पश्चात् उनकी युवा पुत्री मेरे लिए जल लेकर आयीं । उनकी विद्वता स्तुति करने योग्य थी; किन्तु तभी अपनी पुत्रीको देखते ही वे कहने लगे, “मेरे जीवनमें मात्र यही दुःख है, यह ३२ वर्षकी होनेवाली है और इसका विवाह नहीं हो रहा है, इसके विषयमें सोचते-सोचते मुझे मधुमेह और उच्च रक्तचाप हो गया है !” वे मेरे समक्ष ही अपनी पुत्रीको कोसने लगे, क्षण भरमें उनका यह परिवर्तित रूप देखकर मैं भी आश्चर्यचकित थी । उनकी पुत्री, अपने पिताके दुःखका कारण जानकर चिन्तित और विवश दिखाई दे रही थी, उसके नेत्रोंके नीचे काले घेरे, उसका उदास मुख देखकर, मैं घरका वातावरण भांप गयी । वे दस मिनिट तक अपनी पुत्रीके विषयमें बताते हुए कभी अपनेको और कभी उसे कोस रहे थे ।
मुझसे रहा नहीं गया, ” मैंने उन्हें कहा, आपने इतने सुन्दर रीतिसे गीताका विवेचन किया और कर्म-सिद्धांत बताए, इससे मैं बहुत प्रभावित हुई थी; किन्तु आपके इस पक्षको देखकर मुझे भान हुआ कि आपने उस तत्त्वको आत्मसात नहीं किया है ।”
अच्छे श्रोता बननेका एक लाभ यह है कि अगले व्यक्तिको आप अच्छेसे समझ सकते हैं ।
मैं उनसे आगे कहा, “जन्म, मृत्यु और विवाह पूर्व निर्धारित होते हैं, इनपर हमारा कोई वश नहीं होता; ऐसेमें आप अपना कर्म कर ही रहे हैं अर्थात् उसके लिए वर ढूंढ ही रहे हैं तो इसके फलको ईश्वरपर छोड क्यों नहीं देते हैं ? अपनी पुत्रीकी मानसिक स्थिति देखें, आप जैसे तत्त्वज्ञानीकी पुत्री इतनी दु:खी और आप इतने क्लेशमें कैसे हो सकते हैं ? उस तत्त्वज्ञानका क्या लाभ जो मात्र शब्द्जन्य रहे ! यदि आपने इसी तत्त्वज्ञानको अपने जीवनमें उतारा होता तो आप और आपका परिवार इन्हीं परिस्थितियोंमें आनंदमें होता !”
मैंने उन्हें विनम्रतासे कहा, “भैया, मुझे क्षमा करें; किन्तु आपका पाण्डित्य कोरा है, ऐसे ज्ञानके प्रदर्शनसे अहंकी पुष्टि तो हो सकती हैं; किन्तु आनंदकी प्राप्ति नहीं हो सकती; अतः आपसे विनती करती हूं कि आपने जो पढा है उसे अपने जीवनमें उतारें ।” तो वे स्पष्टीकरण देते हुए कहने लगे, “हां, हां मैं प्रतिदिन दो घंटे भिन्न धर्मग्रंथोंका वाचन करता हूं,” । मैं समझ गयी इन्हें कुछ बताना व्यर्थ है; अतः मैं उनसे आज्ञा लेकर निकल गयी ।
ऐसे ‘चतुर विद्वानों’के विषयमें आर्य चाणक्यने एक अति सुन्दर सुभाषित लिखी है जो इसप्रकार है –
 पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः ।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा  ।। – चाणक्य नीति  
अर्थ : चतुर व्यक्ति सारे वेदों और अनेक धर्मग्रंथोंको पढता है; परंतु उसे आत्मतत्त्वका ज्ञान नहीं हो पाता; जैसे कढछी जो भोजन पकानेमें सहायता करती है; उसे भोजनका स्वाद नहीं पता होता ।
इस प्रसंगमें मैंने सीखा कि शब्द्जन्य ज्ञान होनेपर भी वह मात्र ईश्वरीय कृपासे ही आत्मसात हो सकता है; अतः ज्ञान होनेपर उसे अपने जीवनमें उतारना चाहिए तभी वह हमें अनुभूति दे सकता है । ऐसे अनेक कोरे पंडितोंसे मेरी भेंट हुई है, आपको अगले लेखमें इस सम्बन्धमें कुछ और संस्मरण बताउंगी  – तनुजा ठाकुर (२१.१०.२०१७)



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