साधना, साधक एवं उन्नतसे सम्बन्धित प्रसार संस्मरण (भाग – ४)


विपरीत परिस्थितियोंमें मनकी स्थिरता बनाए रखते हुए साधना सम्बन्धित अपने कर्तव्योंका पालन करनेवाले जीवको साधक कहते हैं, आजका संस्मरण इसी तथ्यसे सम्बन्धित है ।
ख्रिस्ताब्द १९९९ में झारखण्डके (उस समय बिहार था) एक जनपदमें धर्मप्रसारके मध्य एक धनाड्य परिवारकी स्त्री, सनातन संस्थाके मार्गदर्शनमें साधना करने लगीं । उनके पति राजसिक प्रवृत्तिके थे और अपने करोडपति होनेका उन्हें अहं भी था; परंतु वे सज्जन प्रवृत्तिके थे । आवश्यकता पडनेपर प्रसारसेवामें अपनी गाडीसे हम साधकोंको सहर्ष सेवास्थल तक पहुंचा दिया करते थे और पुनः यदि उन्हें दूरभाषसे सूचित करते थे तो वे हमें लेने हेतु भी आते थे । मुझे सवेरे सैर करनेकी आदत है और सैर करते समय हमारी उनसे बातें हुआ करती थीं । मैं जब भी उन्हें नामजप करनेके लिए कहती, वे कहते, “मैं नामजप क्यों करूं ?, ईश्वरने मुझे सब कुछ दिया और मुझे कुछ चाहिए नहीं, मैं संतुष्ट हूं और सुखी भी”, यह कहकर वे मेरी बात टाल देते हैं । एक दिन पुनः इसी विषयपर चर्चा होने लगी, वे जानबूझ कर विषय उठाते थे; क्योंकि उन्हें थोडी जिज्ञासा भी थी और मेरी सुई उन्हें नामजप करनेके लिए प्रवृत्त करनेपर अटक जाती थी, एक दिन उन्होंने पुनः वही प्रश्न किया, “मैं क्यों नामजप करूं” ? पता नहीं कैसे मेरे मुंहसे सहज ही निकल गया “भैया, जब विपरीत परिस्थिति आती है, तब ईश्वर ही हमारी सहायता करते हैं, अनेक बार धन रहते हुए भी उस परिस्थितिमें वह हमारे किसी उपयोगका नहीं होता है ।” उन्होंने कहा “मैं आपकी बातसे सहमत हूं; परंतु मेरे जीवनमें ऐसी परिस्थिति क्यों आएंगी, यह आप मुझे बताएं ?”  मैंने मौन रहना ही उचित समझा ।
२०  जनवरी २००० को वे कोई अपने व्यावसायिक कार्य हेतु गुजरात गए थे । २६ जनवरीको भुजमें विनाशकारी भूकम्प आया । वे उस समय भुज क्षेत्रमें थे । २६ जनवरीके दिन हमारा साप्ताहिक सत्संग था और उनकी पत्नी उस सत्संगका संचालन करती थी । मैंने उस जनपदका कार्यभार किसी और साधकको सौंपकर दूसरे जनपदमें प्रसार हेतु जाने लगी थी और उस जनपदके एक सत्संगका उत्तरदायित्व उनकी पत्नीके ऊपर हमने सौंपा था । जैसे ही वे सत्संगमें जानेके लिए निकलनेवाली थीं, उन्हें सूचना मिली कि जिस क्षेत्रमें भूकम्प आया था, उनके पति और एक उनके मित्र, दोनों उसी क्षेत्रमें एक दिन पहले पहुंचे थे और वहां भूकंपके कारण भयंकर विनाश हुआ था । इतना सुननेपर भी वे सत्संग लेनेको अपना कर्तव्य मान, मनको स्थिर कर सत्संग लेने चली गईं और वहां किसीको भी नहीं बताया कि उनके पति भूकम्पवाले क्षेत्रमें एक दिवस पूर्वसे हैं । अगले दो दिन तक उनके पतिकी कोई सूचना नहीं मिल पायी । मुझे किसी अन्य साधकके माध्यमसे यह सब पता चला । मैंने उनसे दूरभाषपर बातचीत की तो वह थोडी चिन्तित थीं, जो स्वाभाविक भी था, मैंने सांत्वना देते हुए उनसे कहा, “आप चिन्ता न करें, ईश्वर सब अच्छा ही करेंगे ।” तीसरे दिन उनके पतिने उन्हें दूरभाष कर बताया कि जिस विश्रामगृहमें (होटलमें) वे रुके थे वह भूकम्पके झटकेसे धराशायी हो गया था और ईश्वर कृपासे वे मलबेसे सुरक्षित निकल पाये थे; परन्तु सारा संचार तन्त्र उद्ध्वस्त होनेके कारण तुरन्त सूचना नहीं दे पाये थे । एक सप्ताहके पश्चात् मैं उनके घर पहुंची तो उनके पति आ पहुंचे थे और भूकम्पके विनाशलीलाका भय उनके मुखपर स्पष्ट दिख रहा था । उन्होंने जो आपबीती बताई वह उनके ही शब्दोंमें बताती हूं,  उन्होंने कहा, “जब भूकम्प आया तो मैं और एक मित्र दोनों भुजमें एक  विश्रामगृहमें (होटलमें) थे । मित्र शौचालयमें था और मैं भी स्नान कर निकला ही था । अचानक ताशके पत्ते समान हमारा भवन हिलने और ढहने लगा ।  मैंने अपने मित्रको शौचालयसे बुलाकर, दोनोंने पलंगके नीचे आश्रय ले लिया  और आश्चर्यकी बात यह है हमारा कक्ष एक माचिसके डिब्बे समान सुरक्षित ढह कर नीचे आ गिरा । रात भर हम उसी स्थितिमें  रहे और अगले दिन कुछ मलबा हटनेपर हम किसी प्रकार बाहर आ पाए । दो दिन, हम दोनों मित्र तौलियेमें सर्वत्र विनाश लीला देख रहे थे, हमारे पास इतना पैसा होते हुए भी हम पूर्णत: असहाय थे और मुझे आपकी बातका स्मरण हो रहा था और मुझे लगता है कि  मैं अपनी पत्नीकी साधनाके कारण ही आज जीवित हूं ।” ये महोदय अपनी पत्नीकी साधनामें विरोध भी करते रहते थे; किन्तु मेरे समक्ष कुछ प्रकट नहीं करते थे, चाहे कारण जी भी हो । मैं सब जानकर भी, अनजान बननेका अभिनय कर, उनसे प्रेमपूर्वक वर्तन करती थी; और उनकी पत्नीको साधना करने हेतु प्रेरित करती रहती थी । ये महोदय मुझे अपनी छोटी बहन समान स्नेह करने लगे थे; इसलिए वे मेरे रहते अपनी पत्नीका साधनामें खुलकर विरोध नहीं करते थे; किन्तु मेरे उस जनपदसे जानेके एक वर्ष पश्चात् जब मेरा उनसे सम्पर्क समाप्त हो गया तो उन्होंने अपनी पत्नीकी समष्टि साधना छुडवा दी !
इस प्रसंगके घटित होनेपर भी उन सज्जनने साधना आरम्भ नहीं की; क्योंकि ईश्वरका नाम लेना प्रत्येक व्यक्तिके लिए सम्भव नहीं होता । जब तक उनकी कृपा न हो तब तक कोई कितना भी सज्जन हो, धनी हो, व्यावहारिक जगतमें सफल हो, समाजमें प्रतिष्ठित हो, वह भक्ति नहीं कर सकता  ! यह सत्य है कि इस प्रसंगमें उस सज्जनकी स्त्रीके साधकत्वने ही उनकी प्राणोंकी रक्षा की थी ।  ईश्वर भक्तवत्सल हैं, सज्जनवत्सल नहीं, उन्होंने गीतामें कहा है ‘परित्राणाय साधूनां’ अर्थात साधकोंका रक्षण करता हूं, सज्जनोंका नहीं; और उस स्त्रीके साधकत्वका परिणाम, ईश्वरने उनकी सुहागकी रक्षा कर दे दी; अतः सज्जनों, साधक बनो ! आगामी आपातकालमें इसप्रकारकी घटनाएं अनेक बार होंगी, ऐसेमें भक्तवत्सल भगवान ही हमारा रक्षण करेंगे, यह ध्यान रख, अपनी साधनाको प्राथमिकता दें एवं ईश्वरकी कृपा सम्पादित करें जिससे आपका और आपके कुटुंबका भगवान रक्षण कर सकें – तनुजा ठाकुर (२.४.२०१३)



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution