उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ – श्रीमद भगवद्गीत(६:५)
अर्थ : स्वयंद्वारा अपना संसार-समुद्रसे उद्धार करें और स्वको अधोगतिमें न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु भी होता है |
भावार्थ : यह सच है कि ब्रह्माजीने सृष्टिकी रचना कर हमें जन्म-मृत्युके बंधनमें डाल दिया है; परंतु उन्होंने मनुष्यको विवेक दिया है जिससे हम योग्य एवं अयोग्य, धर्म एवं अधर्म, पवित्रता एवं अपवित्रताको समझ सकते हैं | मनुष्यको इस कर्म बंधनसे पार करने हेतु हमारे ऋषि मुनियोंने तप कर इस भव सागरसे मात्र स्वयंको ही मुक्त नहीं किया; अपितु कोई भी मनुष्य इस कर्म बंधनसे मुक्त हो सके इस हेतु उन्होंने अनेक साधना मार्ग, धर्म शास्त्रों, एवं अध्यात्मशास्त्रकी रचना कर सर्व गूढ तथ्योंको सर्व सामान्यके लिए उपलब्ध किया है | अब यह मनुष्यपर निर्भर करता है कि वह इस सभी साधनोंका उपयोग कैसे करता है |
अपने अंदर देवत्वको स्थापित करना अपना आत्मोद्धार करना, कलियुगके अंतिम चरण तक हमारे क्रियमाण कर्मद्वारा संभव होगा | हमारे प्रारब्धका भाग कितना ही तीव्र क्यों न हो साधना कर हम उसपर मात पा सकते हैं और इस संसार रूपी भव-बंधनको तोड सकते हैं | उसी प्रकार अपनी इंद्रियोंके वशमें रहकर हम अपनी अधोगति भी करवा सकते हैं | अतः हमें होनेवाले सुख या दुखके कारणीभूत हम स्वयं ही हैं | मनुष्य स्वयंके प्रयाससे स्वयंका मित्र या शत्रु दोनों ही बन सकता है |-
-तनुजा ठाकुर
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