गुरु और शिष्यमे कभी मतभेद हो ही नहीं सकता


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महाकुंभ में एक प्रसिद्ध सन्यासीसे मिली जिन्हें सब संत कहते थे परंतु वे एक उन्नत थे ! उन्नत वे होते हैं जो संत अर्थात आत्मसाक्षात्कारी नहीं होते परंतु उनकी साधना अच्छी होती है |मैंने उनके बारेमें पूछा तो उनके एक शिष्यने कहा , “उनके गुरु —– थे परंतु उनके और उनके गुरुके बीच कोई मतभेद हो गया और उन्होने उनके आश्रमको छोडकर अपना आश्रम बना लिया है |”
गुरु और शिष्यमे कभी मतभेद हो ही नहीं सकता, यदि होता है तो वे गुरु-शिष्य नहीं है ! जिस भक्तको अपने सद्गुरुके सभी बातें स्वीकार्य हो उसे ही शिष्य कहते हैं | आगे उन भक्तने बताया कि उन्होंने अपने गुरुका साथ इसलिए छोड़ दिया क्योंकि गुरु जिन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने जा रहे थे वह उन्हें स्वीकार्य नहीं था ! शिष्य सद्गुरुके पास उनकी चरणोंकी सेवा करने और ज्ञान पाने जाता है, जो गद्दी पाने जाये वह शिष्य नहीं हो सकता !!-तनुजा ठाकुर



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