गुरुकी भक्ति शिष्यके कृत्यसे झलकती है !


आपको हमने परशुराम जन्मस्थलीके सन्त बद्री बाबाके विषयमें बताया ही है । बाबाकी गुरुके प्रति निष्ठा कैसी है ? यह उनके साथ वार्तालापमें ज्ञात हुआ । एक दिवस वे बात ही बातमें कह रहे थे कि मैंने कुछ विशेष नहीं किया । मेरे गुरुने एक बार मुझे कहा था कि मैं तो अब जानापाव नहीं जाऊंगा, तुम उसकी देखरेख करना । वहां नित्य एक दीया जलाना और जो भी आए उसे भोजन कराना । उन्होंने कहा कि मैंने मात्र यही किया है । आगे उन्होंने बताया कि कभी-कभी अतिथिको खिलानेके पश्चात कुछ भी नहीं बचता था तो मैं भूखे ही, मात्र एक लोटा जल पीकर सो जाता था ।
वस्तुतः यह तो उनकी विनम्रता है, वे आश्रमकी कृषियोग्य भूमिपर खेतीकर घोडेसे निर्माण सामग्री ऊपर पहाडपर पहुंचाते थे । उन्होंने उस स्थानकी ७५ वर्ष निष्काम सेवा की है । अपने पुरुषार्थसे अर्थात खेतीकर उन्होंने ७० लाख रुपये लगाकर उस स्थानको सुगम्य बना दिया ! क्या यह कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है ?


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