हिन्दू धर्ममें जाति व्यवस्थाकी उत्पत्ति कैसे हुई ?


किसी व्यक्तिका वर्ण (अर्थात आध्यात्मिक क्षमता ) क्या है ?, यह कोई आत्मज्ञानी संत ही बता सकते हैं , जैसे जैसे युगोंका प्रवाह होता गया , धर्मका एक-एक अंग नष्ट होता गया; अतः आजके उत्पत्ति-सम्बन्धी विज्ञान (genetical science) के समान ब्राह्मण वर्णकी संतानोंकी बुद्धि प्रगल्भ होगी, इसी आधारपर ब्राह्मण वर्णकी संतानोंको ब्राह्मण कहा जाने लगा । आज भी हम किसी कलाकारकी संतानसे उसके माता-पिताके समान ही कलाके क्षेत्रमें कार्य और यश पानेकी अपेक्षा रखते हैं, किसी क्रिकेट खिलाडीके बेटेसे भी पिताके समान ही उच्च श्रेणीके खेलकी अपेक्षा करते हैं । यदि यह आधार मानें तो वर्णसे जातिकी निर्मिति तो ठीक थी, मात्र इस व्यवस्थाने भारतीय संस्कृतिको खोखला तबसे करना आरंभ कर दिया जबसे लोगोंने अपने वर्णधर्मका पालन करना छोड दिया , विशेषकर ब्राह्मण, जो समाजमें गुरु स्थानपर थे और उन्होंने धर्माचरणका पालन करना और धर्माचरण सिखाना छोड दिया और झूठे अहंकारमें समाजको दिग्भ्रमित करने लगे, क्षत्रियोंने अपनी क्षुद्र स्वार्थकी पूर्ति हेतु राष्ट्र और समाज हितका ध्यान रखना छोड दिया, समाजके इस मेरुदण्डके टूटनेसे पूरे समाजकी व्यवस्था चरमरा गयी और शेष १० % ब्राह्मण जो धर्माचरणी थे, उनको भी समाजने योग्य सम्मान देना बंद कर दिया , धर्मका आधार न होने पर क्षत्रिय भी क्षात्रधर्म भूलने लगे, वैश्य व शूद्रको समाजमें जो स्थान प्राप्त था, वह नहीं दिया जाने लगा और उसके फलस्वरूप हिन्दू समाजके ये लोग अन्य अहिन्दू धर्म एवं पंथ, जहां उन्हें सम्मान मिला, उसे अपनाने लगे और समाजमें जात-पात, छुआ- छूत फैलने लगी, यह कोढ समान हमारे समाजको खोखला करने लगी , इन सबका एकमात्र उपाय है, समाजको पुनः धर्माचरणी बनाना और जन्म नहीं, बल्कि गुण एवं कर्म आधारित वर्ण व्यवस्थाकी पुनः स्थापना करना ।
हमारी भारतीय संस्कृति सदा ही वर्ण व्यवस्था आधारित थी परंतु धर्मकी ग्लानि होने पर जाति व्यवस्थाके विकृत स्वरूपने वैदिक सनातन धर्मका पतन आरम्भ कर दिया । हमारी संस्कृतिमें गुण, कर्म और त्यागको प्रधानता दी जाती थी और उसी अनुसार पद भी दिये जाते थे ! यथार्थमें वर्ण व्यवस्था आधारित समाजमें राम-राज्य स्वतः ही स्थापित हो जाता है । संतोंके आश्रम रामराज्यकी एक छोटी इकाई होती है ।



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