साधकों, मात्र कहीं भोजन ग्रहण करने हेतु न जाएं !


कुछ साधकोंकी वृत्ति होती है कि उन्हें जहां भी निःशुल्क भोजन मिल जाए वे वहां बिना सोचे समझें जाकर खा आते हैं | विशेषकर विवाहादि समारोहमें वे अनेक बार मात्र खाने हेतु जाते हैं ! तो साधकों, एक सरल सा सिद्धांत ध्यान रखें | हम जब अध्यात्म पथपर अग्रसर होकर साधना करने लगते हैं तो संचितको जलानेमें हमारी साधना व्यय होती है; इसलिए यह सब जाननेके पश्चात कमसे कम अपने क्रियामाणसे नूतन कर्म निर्माण न करें |
वस्तुत: ८० % आध्यात्मिक स्तरके पश्चात ही हमारा कर्म अकर्म-कर्म होता है, इससे पूर्व हम जो भी कर्म करते हैं उसका कर्मफल यदि हम सतर्क होकर कर्म न करें तो सहज निर्माण होता है इसलिए ऐसा कोई कर्म नहीं करना चाहिए जिसका फल हमें भोगने हेतु पुनः जन्म लेना पडे | मैं यह नहीं कह रही हूं कि आप अपने सगे-सम्बन्धियोंके विवाहादि अनुष्ठानमें न जाएं; किन्तु मात्र कहीं भोजन ग्रहण करने हेतु न जाएं | आज आप किसीके यहां भोजन ग्रहण करेंगे, बादमें आपको इस जन्ममें या अगले जन्ममें उनका यह ऋण उतारना ही होगा ! इसलिए साधक, जिस दिनसे साधना आरम्भ करें, उसी दिनसे यह प्रयास करें कि नूतन कर्मफल अपने क्रियामाण कर्मसे न निर्माण करें ! इस हेतु यदि कहीं जाकर भोजन ग्रहण करना अति आवश्यक हो तो उसे ग्रहण करनेसे पूर्व प्रथम प्रार्थना कर उसे ईश्वरको अर्पण करें तत्पश्चात प्रत्येक ग्रास खाते समय नामजप करें , वैसे भी शास्त्रोंमें भोजन करते समय इन्हीं कारणोंसे मौन रहने हेतु कहा गया है !


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