मोक्ष-प्राप्ति


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एक व्यापारी था । वह धार्मिक क्रिया-कलापोंमें दिनका अधिकांश समय व्यतीत करता था । वह प्रतिदिन स्नान करके मन्दिर जाता, वहां विधि-विधानसे देवता पूजन करता । तदुपरान्त ही अपनी आपणि (दुकान) जाता । संध्याको पुनः दो घण्टे मन्दिरमें बैठकर पूजा-अनुष्ठान करता । वह प्रतिदिन एक ही प्रार्थना करता, ‘हे भगवान ! मुझे मोक्ष प्रदान करें ।’ एक दिन भगवान व्यापारीके सम्मुख प्रकट हुए और बोले, ‘तुममें मोक्ष पानेकी इतनी तडप है तो चलो ! मैं तुम्हें आज मोक्ष दे ही देता हूं ।’ यह सुनकर व्यापारी घबरा गया; क्योंकि वह अभी मरना नहीं चाहता था । इसलिए वह बोला,  प्रभु ! अभी मैं मोक्ष कैसे ले सकता हूं ? अभी मेरा बेटा छोटा है । वह पढ-लिखकर योग्य हो जाए । उसके हाथोंमें अपना व्यापार सौंपकर निश्चिंत हो जाऊं, तब आप मुझे मोक्ष देना । भगवानने पूछा, यदि ऐसा है तो तुम नित्य मोक्षकी प्रार्थना क्यों करते हो ? व्यापारीने कहा, मोक्ष तो चाहिए; किंतु अभी नहीं । अभी तो आप मुझे मोक्षका आश्वासन दे दीजिए । भगवान आश्वासन देकर चले गए ।

कुछ वर्ष पश्चात् व्यापारीके पुत्रने व्यापार संभाल लिया । तब पुनः भगवान मोक्ष देने  आए; किंतु व्यापारीने बहुका मुख देखनेकी इच्छा प्रकट कर उन्हें  टाल दिया । पुत्रके विवाह पश्चात् भगवान आए तो व्यापारीने पोता देखनेकी लालसा जताई । पोता होनेके पश्चात् भगवान आए तो व्यापारीने कहा कि पोता बडा हो जाए और बहू अकेली घर संभालनेमें सक्षम हो जाए तब आपके साथ चलता हूं । अब भगवान बोले, ‘लालसा अनंत होती है । पोतेके बडे होनेपर उसके विवाह और तत्पश्चात् तुम्हें पडपोता देखनेकी इच्छा होगी; अत: उचित यही है कि तुम मोक्षकी औपचारिक प्रार्थना बन्द कर दो । वह तुम्हें नहीं मिल सकता । भौतिक जगतसे पूर्णत: अनासक्ति साध्य करनेपर ही आत्मिक जगतसे सम्बंध जुडता है और मोक्षके मार्गपर जीवात्मा अग्रसर होती  है ।  इस दृष्टांतमें भौतिक जगतसे अनासक्तिका आशय संसारका त्याग नहीं; अपितु संसारके प्रति आसक्तिके त्यागसे है ।



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