धरोहर
यह वृत्तांत प्रसिद्ध भक्तकवि नरसिंह मेहताके जीवनका है । भक्त नरसिंह मेहता निर्धन थे, भक्त प्रायः निर्धन ही होते हैं; किन्तु उन्हें निर्धनताका किंचित भी क्षोभ नहीं होता । नरसिंह मेहता भी अकिंचन थे । परन्तु विरोधाभास यह कि उनमें दानशीलताका भी गुण था । वे किसी याचकको कभी निराश नहीं करते थे । सौभाग्यसे उनकी पारिवारिक और दानशीलताकी आवश्यकताएं किसी न किसी मार्गसे पूर्ण हो जाया करती थीं ।
भक्तिरससे लोगोंके तनाव व विषाद दूर करना, उन्हें अत्यधिक प्रिय था । इसी उद्देश्यसे निकटके ग्राम-नगरोंमें लगते मेलोंमें नियमित जाया करते थे । वहां भी वे हर याचकको संतुष्ट करनेका प्रयत्न करते । मेलोंमें उनकी दानशीलताकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी ।
एक समय वे किसी अपरिचित नगरके मेलेमें गए और उनके आनेकी सूचना वहां भ्रमण करने आए जनको हो गई । उनकी दानशीलताकी प्रवृत्तिको देखते हुए याचक कुछ अधिक ही आए । नरसिंह मेहताके पास धन नहीं था । वे शीघ्र ही उस नगरके वणिक (साहूकार) से ऋण लाकर वहां याचकोंमें वितरित करने लगे । यह दृश्य नरसिंह मेहताके ही ग्रामका एक व्यक्ति देख रहा था, वह आश्चर्य चकित था कि दानके लिए इतना धन नरसिंहके पास कहांसे आया ? नरसिंह मेहतासे पूछनेपर ज्ञात हुआ कि भक्तराजने स्थानीय साहूकारसे ऋण प्राप्त किया है । वह व्यक्ति सोचमें पड गया ! इस नए नगरमें, अपरिचित व्यक्तिको ऋण देनेवाला कौन साहूकार मिल गया ? उस व्यक्तिने नरसिंह मेहतासे पूछा, साहूकार तो बिना सुरक्षा धरोहरके ऋण नहीं देते, आपने क्या धरोहर (अमानत) रखी ?” नरसिंह मेहताने उत्तर दिया, “ श्मश्रु (मूंछ) का एक केश रखकर ऋण लाया हूं ।”
वह व्यक्ति पुनः सोचमें पड गया ! उसे ज्ञात था नरसिंह असत्य नहीं बोलते, तब ऐसा कौनसा मूर्ख साहूकार है जो मूंछके एक बाल की साखपर ऋण दे दे !! यह तो अच्छा है । नरसिंह मेहतासे उसका पता लेकर वह भी पहुंच गया साहूकारकी पेढीपर । “सेठजी मुझे दस सहस्रका ॠण चाहिए”, व्यक्ति बोला । “ठीक है, किन्तु सुरक्षा धरोहर क्या रख रहे हो ?” साहूकार बोला । व्यक्तिने तत्काल उत्तर दिया, “मूंछका बाल”। “ठीक है लाओ, तनिक देखभाल कर मूल्यांकन कर लूं ।” उस व्यक्तिने अपनी मूंछसे एक बाल खींच कर देते हुए कहा, “यह लो सेठ जी।” साहूकारने बाल लेकर उसे ठीकसे उलट-पलट कर बडी सूक्ष्मतासे देखा और कहा, “बाल तो बांका है, वक्र है” त्वरित ही व्यक्ति बोला, “कोई बात नहीं टेढा है तो उसे फेंक दो” और दूसरा बाल तोड कर थमा दिया । साहूकारने उसे भी वक्र बताया, फिर तीसरा भी । वह व्यक्ति चौथा खींचने जा ही रहा था कि साहूकार बोला, “मैं आपको ॠण नहीं दे सकता।”
“ऐसा कैसे”, व्यक्ति किंचित रोष प्रकट करते हुए बोला, “आपने नरसिंह मेहताको मूंछके बालके स्थानापन्न (बदलेमें ) ऋण दिया है, तो मुझे क्यों मना कर रहे हो ?” साहूकारने घूरते हुए कहा, देख भाई ! नरसिंह मेहताको भी मैंने पूछा था कि क्या धरोहर रखोगे ? उनके पास धरोहर रखनेके लिए कुछ भी नहीं था, सो उन्होंने मूंछके बालका आग्रह किया । मैंने उनके मूंछके बालकी भी परीक्षा इसी प्रकार की थी । जब मैंने उन्हें कहा कि यह बाल तो बांका है, नरसिंह मेहताने उत्तर दिया कि ‘बांका है तो माका है’ अर्थात् वक्र है तो मेरा है, आप बस रखिए और ॠण दीजिए । मैंने तत्काल भुगतान कर दिया; किन्तु आप तो एक एक कर बाल नोच कर देते रहे और टेढा कहते ही फिंकवाते रहे । इस तरह तो आप अपनी पूरी मूंछ ही नोच लेते परन्तु धरोहर हेतु बाल नहीं मिलता ।
सेठ बोले यह बालकी परीक्षा नहीं, साहूकारी (निष्ठा) की परीक्षा थी, ऋण वापस लौटानेकी निष्ठाका मूल्यांकन था । नरसिंह मेहताके ध्येयमें हर बाल मूल्यवान् था, प्रथम बालको सम्मान देनेका कारण निष्ठा थी । वह ऋण लौटानेके उत्तरदायित्वका दृढ निश्चय था, देनदारीके प्रति निष्ठाभाव ही उस तुच्छसे बालको महत्त्व दे रहा था । बाल बांका हो या सीधा, उन्हें ऋण चुकाकर पुन: प्राप्त करनेकी प्रतिबद्धता थी । अतः ॠण भरपाईके प्रति निश्चिंत होकर मैंने ऋण दिया । मूंछका बाल तो सांकेतिक धरोहर था, वस्तुतः मैंने विश्वास ही सुरक्षा निधिके रूपमें रखा था ।
निष्ठाकी परखके लिए साहूकारके पास विलक्षण दृष्टि थी !! साधकमें मनुष्यको परखनेकी यह विवेक दृष्टि आ जाए तो कैसा भी धूर्त हमें ठग सकता है क्या ?
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