मुझे एक कथा जो अत्यधिक प्रिय है, उसे आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ | यह एक सत्य घटना है | कबीरदासजी उच्च कोटिके संत थे और उन्होंने स्थूल रूपसे अपने गुरुसे कुछ नहीं सीखा, एकलव्य समान गुरुभक्तिकी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ! उनकी वह दोहावली तो आप सबको पता ही होगी |
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय |
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो दिखाय ||
जिस गुरुको मात्र एक बार देखा, उस गुरुके प्रति कैसी श्रद्धा होगी उनकी कि आत्मसाक्षात्कारका श्रेय भी उन्हें दे दिया और ईश्वरसे अधिक श्रेष्ठ स्थान भी ! वास्तविकता यह है कि जिसने गुरुकृपाके अमृतका रसपान किया है, वही इसका महत्व समझ सकते हैं !
|| गुरुकृपा ही केवलं शिष्य परम मंगलम ||
और गुरुने भी हार मान ली कबीरकी गुरुभक्तिके समक्ष !
संत कबीरकी बढती प्रसिद्धिको देख काशीके कुछ पोंगे पंडितोको द्वेषवश कष्ट होने लगा | वे कबीरके पास गए और उनकी गुरु परंपराके बारेमें पूछा | कबीरने कहा, “मेरे गुरु रामानन्द महाराज हैं, उन्होंने ही मुझे गुरुमंत्र दिया था और उनकी कृपाके कारण ही आज मैं आनंदमें रहता हूं” | पंडितोंको उनकी प्रसिद्धिका द्वेष तो था ही, रामानन्द महाराजसे जाकर पूछने लगे “जिसके जन्म और जातिका ठिकाना नहीं, उसे आपने शिष्य कैसे बना लिया ? रामानन्द महाराज बोले, “मैंने किसी कबीरको शिष्य नहीं बनाया | मैं तो उसे जानता तक नहीं”| पंडित बोले, “परंतु वे तो सीना तान कर कहते हैं कि आप ही उनके गुरु हैं और आपने उन्हें गुरुमंत्र भी दिया है” |
कबीरके बारेमें वह प्रसंग तो आपको पता ही होगा कि उनकी इच्छा थी रामानन्द महाराजसे उन्हें दीक्षा मिले; परंतु उन्हें पता था कि ऐसा संभव नहीं | अतः वे काशीके गंगा-घाटके रास्तेमें, मुंह-अंधेरे लेट गए, उन्हें पता था कि गुरु महाराज प्रतिदिन इसी मार्गसे नित्य गंगा-स्नान हेतु पौ फटनेसे पहले ही जाते हैं | अतः उनसे दीक्षा लेनेका यह सर्वोत्तम मार्ग है; और वैसा ही हुआ | अंधेरेमें रामानन्दजीने उनके सीनेपर अपने चरण रख दिए और ऐसा होते ही उनके मुखसे ‘राम राम’ निकल पड़ा | कबीरदासजी चुपचाप श्रीगुरुके चरणोंके स्पर्श और उनके मुखारविंदसे निकला ‘राम मंत्र’ को गुरु मंत्र मान, वहाँसे निकल गए |
अब जब रामानन्द महाराजने कह दिया कि किसी कबीरको नहीं जानते तो पंडितोंने कबीरदासको नीचा दिखानेके लिए धर्म-सभा बुलाई | उस समय धर्मसभा बडे-बडे मंदिरोंकी सीढ़ियोंपर लगती थी, जहां ऐसे छोटे-मोटे प्रसंगोंको सुलझाया जाता था | सभा आरंभ हुई रामानन्दजीने कबीरदासको डांटकर अपने पास बुलाया | वे एक सीढ़ी ऊपर थे और कबीर एक सीढ़ी नीचे | रामानंदी संप्रदायके संत अपने साथ एक चिमटा रखते थे, गुरुजीने शिष्यको एक चिमटा मारते हुए कहा, “क्यों, मैंने कब तुम्हें शिष्य स्वीकार किया बता, ‘राम राम’ |” उनकी आदत थी, प्रत्येक वाक्यमें ‘राम राम’ कहनेकी; और दूसरा चिमटा पुनः मारा और कहने लगे “झूठ बोलता है कि मैंने तुझे गुरुमंत्र दिया है, ‘राम राम’ |” तीसरा चिमटा मारते हुए कहा, “सबके सामने सच-सच बता, ‘राम राम’ |” कबीरदासजी बड़ी विनम्रतासे सबके सम्मुख खड़े हुए और कहने लगे | “उस दिन गुरु महाराजने अंधेरेमें अपने चरणोंके स्पर्श दिए थे और ‘राम राम’ का मंत्र प्राप्त हुआ था और आज सबके सामने ‘राम राम’ का दिव्य मंत्र अपने आशीर्वादका छापके साथ मेरे पीठपर दे दिया और क्या कहूँ इनकी कृपाके बारेमें; और अपनी पीठ दिखाई जिसमें तीन चिमटेके दाग स्पष्ट दिखाई दे रहे थे | गुरुका हृदय तो माँ समान कोमल होता है, ऐसी भक्ति देख उनके आँखोंसे अश्रुधारा निकालने लगी | उन्होंने कहा, “अब चाहे काशीके सारे पंडित मेरा बहिष्कार करें, आजसे तू मेरा शिष्य और मैं तेरा गुरु, ‘राम राम” !!! यह कह शिष्यको गलेसे लगा लिया और दोनोंकी आँखोंसे अश्रुधारा देख सब पोंगे पंडित लज्जित हो गए |
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