प्रेरक प्रसंग – अपना सत्य


एक व्यक्ति प्रायः किसी सरोवरके(तालाबके) तटपर भ्रमण हेतु (घूमने) जाया करता था । पानीमें उसका प्रतिबिंब दिखता था । उस सरोवरमें मछलियां थीं । एक मछलीने पानीमें दृष्टिगत हो रहे उस व्यक्तिके प्रतिबिंब(परछाई) को देखा । उसे दिखाई दिया कि उसका सिर नीचे है और पैर ऊपर । मछलीने एक दिन देखा, दो दिन देखा, दस दिन देखा । इस प्रकार प्रतिदिन देखनेसे उसकी धारणा दृढ हो गई । उसने मान लिया कि मनुष्य वह होता है, जिसका सिर नीचे और पैर ऊपर होते हैं । एक दिन वह व्यक्ति पुनः सरोवरके तटपर था । सरोवरकी तटरेखापर (किनारे-किनारे) घूम रहा था । वह मछली पानीकी सतह पर आई । उसने मनुष्यको देखा । उसका सिर ऊपर है, पैर नीचे । उसने सोचा संभवतः मनुष्य शीर्षासन कर रहा है, नहीं तो मनुष्य ऐसा नहीं हो सकता । मछलीने स्वयंद्वारा स्थापित सत्यपर विश्वास करते हुए विचार किया कि मनुष्य वह होता है, जिसका सिर नीचे और पैर ऊपर होते  हैं । उसने कहा, “आज मैं देख रही हूं कि इसका सिर ऊपर है और पैर नीचे । अवश्य ही यह कोई उल्टी क्रिया कर रहा है । शीर्षासन कर रहा है । उसकी धारणा और सुदृढ हो गई ।”

वर्तमानमें कई व्यक्ति उस मत्स्य(मछली) जैसे ही हैं । जिस व्यक्ति या घटनाके संबंधमें जो हमारी मानसिकता होती है या पूर्वाग्रह होता है, हम उसे ही अंतिम “सत्य” मानकर व्यवहार करते हैं । यही बात धर्म एवं अध्यात्मके संबंधमें भी लागू होती है । व्यक्ति वास्तविक सत्यको जाननेका प्रयास ही नहीं करता, इसके कारण वास्तविक सत्यका उसे भान ही नहीं होता । यदि कोई यह आभास करानेका प्रयास करे तो कई व्यक्ति “विमर्श” करने की अपेक्षा “विवाद” कर बैठते हैं । यह प्रवृत्ति मनुष्यके लिए घातक होती है और जब उसे वास्तविक सत्यका भान होता है तब तक विलंब हो चुका होता है । यहां प्रश्न यह भी है कि वास्तविक सत्य हमें दिखाएगा कौन ? इसका सरलसा उत्तर है –“गुरु” और गुरु वास्तविक हैं या नहीं ? इसका बोध करने हेतु हमें अपनी साधना बढानी होगी ।



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