प्रेरक कथा – नारदजीकी समस्या


एक बार देवर्षि नारद अपने पिता ब्रह्माजीके सामने “नारायण-नारायण” का जप करते हुए उपस्थित हुए और पूज्य पिताजीको दण्डवत प्रणाम किया ।  नारदजीको सामने देख ब्रह्माजीने पूछा, “नारद ! आज कैसे आना हुआ ? तुम्हारे मुखके भाव कुछ कह रहे हैं ! कोई विशेष प्रयोजन है अथवा कोई नूतन समस्या ?”
नारदजीने उत्तर देते हुए कहा, “ पिताश्री ऐसा कोई विशेष प्रयोजन तो नहीं है, कई दिनोंसे एक प्रश्न मनमें खटक रहा है । आज आपसे इसका उत्तर जाननेके लिए उपस्थित हुआ हूं ।”
“तो विलम्ब कैसा ? मनकी शंकाओंका समाधान शीघ्रतासे कर लेना ही ठीक रहता है; इसलिए निःसंकोच अपना प्रश्न पूछो !” ब्रह्माजीने कहा ।
“पिताश्री आप सारे सृष्टिके जनक हैं, देवता और दानव आपकी ही सन्तानें हैं । भक्ति और ज्ञानमें देवता श्रेष्ठ हैं तो शक्ति तथा तपाचरणमें दानव श्रेष्ठ हैं; परन्तु मैं इसी प्रश्नमें उलझा हुआ हूं कि इन दोनोंमें कौन अधिक श्रेष्ठ है और आपने देवोंको स्वर्ग और दानवोंको पाताल लोकमें स्थान दिया ऐसा क्यों ? इन्हीं प्रश्नोंका उत्तर जाननेके लिए मैं आपकी शरणमें आया हूं ।” नारदजीने ब्रह्माजीसे अपना प्रश्न बताते हुए कहा ।
नारदजीका प्रश्न सुन ब्रह्मदेव बोले, “नारद इस प्रश्नका उत्तर देना तो कठिन है और इसका उत्तर मैं नहीं दे पाउंगा क्योंकि देव और दानव दोनों ही मेरे पुत्र हैं एवं अपने ही दो पुत्रोंकी तुलना अपने ही मुखसे करना उचित नहीं होगा; तथापि तुम्हारे प्रश्नका उत्तर ढूंढनेमें मैं तुम्हारी सहायताकर सकता हूं ।  तुम आज ही देवों और दानवों, दोनोंको मेरी ओरसे भोजनका निमन्त्रण भेजो । कल ही हम उनके लिए भोजका आयोजन करेंगे । और कल ही तुम्हे तुम्हारे प्रश्नका उत्तर भी मिल जाएगा कि
देव क्यों स्वर्गलोकमें हैं तथा दानव पाताललोकमें ? नारदजी तत्काल ही असुरों और देवोंको निमन्त्रण दे आए ।
दूसरे दिवस दानव ब्रह्मलोकमें भोजनका आनन्द लेनेके लिए पहुंच गए और उन्होंने पहले पहुंचनेके कारण भोजनकी प्राथमिकता स्वयंको देनेके लिए ब्रह्माजीसे आग्रह किया ।
भोजनकी थालियां परोसी गईं, दानव भोजन करनेके लिए बैठे, वे भोजन आरम्भ करने ही वाले थे कि ब्रह्माजी हाथमें कुछ लकडियां लेकर उनके समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने कहा, “आजके भोजनकी एक छोटीसी अर्हता (शर्त) है, मैं यहां उपस्थित प्रत्येक अतिथिके दोनों हाथोंमें इस प्रकारसे लकडी बांधूंगा कि वो कोहनीसे मुड नहीं पाए और इसी स्थितिमें सभीको भोजन करना होगा ।
कुछ समय पश्चात सभी असुरोंके हाथोंमें लकडियां बन्ध चुकी थीं । अब असुरोंने भोजन आरम्भ किया; परन्तु ऐसी स्थितिमें कोई कैसे ग्रहणकर सकता था ? कोई असुर सीधे थालीमें मुख डालकर खानेका प्रयास करने लगा तो कोई भोजनको हवामें उछालकर मुखमें डालनेका प्रयत्न करने लगा ।  दानवोंकी ऐसी स्थिति देखकर नारदजी अपनी हंसी नहीं रोक पाए !
अपने सारे प्रयास विफल होते देख दानव बिना ग्रहण किए ही उठ गए और क्रोधित होते हुए बोले, “हमारी यही दशा करनी थी तो हमें भोजनपर बुलाया ही क्यों ? कुछ देर पश्चात देव भी यहां पहुंचनेवाले हैं, ऐसी ही लकडियां आप उनके हाथोंमें भी बांधिएगा जिससे हम भी उनकी दुर्दशाका आनन्द ले सकें…. ”
कुछ समय पश्चात देव भी वहां पहुंच गए और अब देव भोजनके लिए बैठे, देवोंके भोजन मन्त्र पढते ही ब्रह्माजीने सभीके हाथोंमें लकडियां बांधी और भोजनके लिए प्रतिबन्धन (शर्त) भी बता दिया ।
हाथोंमें लकडियां बंधनेपर भी देव शान्त रहे, वे समझ चुके थे कि स्वयं अपने हाथसे भोजन करना सम्भव नही है; अतः वे थोडा आगे खिसक गए और थालीसे अन्न उठा सामनेवालेको खिलाकर भोजन आरम्भ किया । बडे ही स्नेहके साथ वे एक दूसरेको खिला रहे थे और भोजनका आनन्द ले रहे थे, उन्होंने भोजनका भरपूर स्वाद लिया साथ ही दूसरोंके प्रति अपना स्नेह और सम्मान व्यक्त किया ।
यह कल्पना हमें क्यों नहीं सूझी ?, इसी विचारके साथ दानव अत्यन्त दु:खी हो गए । नारदजी यह देखकर मुस्कुरा रहे थे । नारदजीने ब्रह्माजीसे कहा, “पिताश्री आपकी लीला अगाध है । युक्ति, शक्ति और सामर्थ्यका उपयोग स्वार्थ हेतु करनेकी अपेक्षा परमार्थके लिए करनेवालेका जीवन ही श्रेष्ठ होता है । दूसरोंकी भलाईमें ही अपनी भलाई है यह आपने सप्रमाण दिखा दिया और मुझे अपने प्रश्नोंका उत्तर मिल गया है ।  ब्रह्माजीको सबने प्रणाम किया और वहांसे विदा ली ।
 हमें हमारी वृत्ति एवं संस्कारोंके अनुरूप ही ईश्वर सब देते हैं, यह इस कथाकी सीख है ।


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