प्रेरक कथा – आश्रय



एक शिष्यने गुरुसे पूछा – ‘गुरुदेव ! आप सदैव कहते हैं कि हमें एक क्षणके लिए भी प्रभुकी ओरसे ध्यान नहीं हटाना चाहिए । किंतु यह कैसे संभव है ? मायाका इतना मोहक स्वरूप तो सभीको उलझा कर रखता है और वैसे भी जिसे मोक्ष मिलना है,  उसे किसी भी समय मिल सकता है ।’  यह सुनकर गुरुजी बोले – ‘मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूं ।

किसी राज्यका राजा अत्यंत अत्याचारी था । वह सामान्य बातपर ही क्रुद्ध होकर प्रजाको बंदी बनाकर एक ऐसे वनमें छोड देता था, जिसके चारों ओर एक ऊंची व गोलाकार भीत्तिका(दीवार) थी । अधिकांश बंदी उस वनमें भटकते हुए पत्थरोंसे माथा टकराकर मर जाते थे । उन्हीं में से एक ऐसा व्यक्ति भी था, जो सदैव ईश्वरके नामका स्मरण करता रहता था । उसे विश्वास था कि जब ईश्वरने ये सारी मायावी रचनाएं की हैं,  तो उस मायासे निकलनेका कोई मार्ग भी बनाया ही होगा ।

वह प्रतिदिन उस भित्तिकाके सहारे गोल-गोल घूमा करता था और दूसरोंसे भी ऐसा करनेका आग्रह करता था,  किंतु दूसरे बंदी या तो वार्तामें व्यस्त रहते अथवा थककर बैठ जाते । वह व्यक्ति न थका और न उसने बातोंमें समय गंवाया । अंततः उसने निरंतर भगवानका नामजप करते हुए, स्थान-स्थानपर स्पर्श कर-करके वह स्थान ढूंढ लिया, जहांसे बाहर निकालनेका मार्ग था ।

इस प्रकार उसने भयावह वनसे मुक्ति पा ली ।  यह कहानी सुनाकर गुरुजी बोले – ‘वत्स ! यह सृष्टि भी चौरासी लाख योनियोंका वन है, जिसमें विधाताने हमें रखा है । जो प्रभु नाम रूपी आश्रयको पकडे रहते हैं, वे मोक्ष पा जाते हैं और जो इसमें चूके, वे भटकते रहकर कष्ट पाते हैं ।’ अटूट विश्वास अंतत: फलता ही है ।

 



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