राजाका मौन


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एक राजाके मनमें एक अत्यन्त ही आकर्षक और भव्य राजप्रासादके (महलके) निर्माणका विचार आया । उसने अपने मंत्रियोंसे विचार-विमर्श किया, सभासदों व परिजनोंसे भी मत मांगा । सभीने उसके विचारसे सहमति जताई । राजाने उत्साहित होकर योग्यतम शिल्पकारोंको (कारीगरोंको) बुलवाया और उन्हें प्रासादके निर्माणका दायित्व दिया । कुछ ही समयमें राजाकी कल्पनाने साकार रूप ले लिया और राजप्रासाद बनकर सज्ज (तैयार) हो गया । राजाने राजप्रासादमें प्रवेशके अवसरपर एक विराट आयोजन किया और दूर-दूरके राजाओंको निमंत्रित किया । सभीने राजप्रासादकी उत्कंठासे प्रशंसा की । राजप्रासाद हर कोणसे इतना सुन्दर और दृढ था कि उसमें कोई त्रुटि दिख ही नहीं रही थी । कालांतरमें एक संन्यासी राजासे मिलने आया ।

 राजाने उसका सत्कार किया । संन्यासी दीर्घावधि तक राजासे वार्तालाप करता रहा; किन्तु राजप्रासादके विषयमें एक शब्द भी नहीं बोला । राजाको आश्चर्य हुआ । अंतत: राजाने संन्यासीको राजप्रासाद घुमाया और उसकी भव्यता और सुदृढताके विषयमें बताकर पूछा, “क्या मेरे राजप्रासादमें कोई अपूर्णता है जो आपने इसकी प्रशंसामें एक शब्द भी नहीं कहा ?” तब संन्यासी बोला, “राजन ! तुम्हारा राजप्रासाद अत्यंत भव्य, सुन्दर और सुदृढ है । यह शताब्दियोंतक नष्ट नहीं होगा; किन्तु क्या इतना ही स्थिर इसमें रहनेवाला होगा ?, बस, इसी एक न्यूनताके (कमीके) कारण मैंने राजप्रासादकी प्रशंसा नहीं की ।” राजा संन्यासीकी बातका मर्म समझकर मौन हो गया ।

इस संसारके अधिकांश लोग अज्ञानतामें अपना समय, ऊर्जा और धनको अस्थायी वस्तुओंको बनानेमें या रचनेमें व्यय (खर्च) कर देते हैं; किन्तु वे यह नहीं समझते हैं कि बुद्धिमानी नश्वर निर्माण करनेमें नहीं अपितु शाश्वतको पानेमें होता है ! जो शाश्वतको (ईश्वरको) पा लेते हैं, उनका यश भी ध्रुव समान स्थिर और शाश्वत हो जाता है !



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