रामनाम टेढो भला


ramnaam

वेद एवं मन्त्रोंका उच्चारण सही होना आवश्यक है, अन्यथा हमें उनके अशुद्ध उच्चारणसे हमें कष्ट होता है, मात्र नामजप हम किसी भी प्रकार कर सकते हैं, ऐसा क्यों ?

पाणिनी व्याकरणमें कहा गया है :

अनक्षरं हतायुष्यं विस्वरं व्याधिपीढ़ितम ।
अक्षता शस्त्रषरूपेण वज्रं पतति  मस्तके ।।

अर्थात: व्यंजन वर्णके अशुद्ध उच्चारणसे आयुका नाश होता है और स्वर वर्णके अशुद्ध उच्चारणसे रोग होते हैं, अशुद्ध उच्चारणसे युक्त मंत्रद्वारा अभिमंत्रित अक्षत सिरपर वज्रपात सामान गिरता है |

परन्तु नामजपके सन्दर्भमें पञ्चरत्रगम नामक धर्म शास्त्रमें कुछ इस प्रकार कहा गया है :

मूर्खो वदति विष्णाय बुधो वदति विष्णवे |
नं इत्येव अर्थम् च द्वयोरपि समं फलं ||

अर्थात: मूर्ख व्यक्ति अयोग्य उच्चारणकर, विष्णाय नमः कहता है और बुद्धिमान व्यक्ति विष्णवे नमः कहता है, परन्तु दोनोंका हेतु नमन करना है | अतः दोनोंको समान फल मिलता है | देसी भाषामें इसलिए कहा गया है ‘रामनाम टेढो भला’ |

इस सन्दर्भमें एक अनुभूति बताती हूँ | अक्टूबर १९९९ में झारखण्डके बोकारो जिलेमें एक मंदिरमें साप्ताहिक सत्संग लिया करती थी | एक दिन मैं कहीं जा रही थी, एक अनपढ़ स्त्री राहमें मेरी दो पहिये वाहनको रोक कर, अत्यंत भावपूर्ण होकर बोलीं, “मैं आपको कुछ बताना चाहती हूँ” | मैंने कहा, “क्या” ? उसने बताया कि तीन महीने पहले एक दिन मंदिरके बाहर वह किसीके घरके बर्तन नल पर धो रही थी और उसने नामजपके विषयमें मुझे सत्संग लेते हुए ध्वनिप्रक्षेपकके (माइक) माध्यमसे सुना था | उसने अपने हाथ पैरकी ओर दिखाते हुए कहा, “चर्मरोगसे मेरा शरीर लगभग सड गया था और आपके बताये जप करनेपर मेरा चर्म रोग ठीक हो गया” | उसके शरीरपर चर्मरोगके हलके धब्बे, निशानके रूपमें दिख रहे थे | मुझे यह सुनकर अत्यंत आनंद हुआ, क्योंकि मैं उससे कभी मिली भी नहीं थी और तब भी वह नामजप कर रही थी | मैंने यूँ ही पुछा, “आप कौनसा जप कर रही हैं” ? उसने कहा, “श्री गुरुदेवे दत्ते नमः” |
! मैं मुस्कराने लगी तो उसने कहा “क्या मुझसे कोई चूक हो गयी” ? मैंने कहा, “हाँ, नामजप सही पद्धतिसे नहीं कर रही; और मैंने उन्हें ‘श्री गुरुदेव दत्त’ जप करनेके लिए बताया और उसी समय उसे पांच बार दोहरानेके लिए भी कहा | उसने आनंदपूर्वक अपने जपमें सुधारकर, मुझे कृतज्ञतापूर्ण नमस्कार कर चली गयी | मैं वहीँ खड़ी, उपर्युक्त श्लोकका स्मरण कर मुस्कुराने लगी | वह स्त्री अनपढ थी | अतः वह जप सही प्रकारसे नहीं कर पाई, परन्तु हेतु शुद्ध था | अतः उसे अनुभूति हुई |
उस स्त्रीको अतृप्त पितरोंके कारण कष्ट था और उसी कारण उसे चर्मरोग हो गया था , ‘श्री गुरुदेव दत्त’, अर्थात दत्तात्रेय देवताका जप करनेसे उसके पितरोंको गति मिल गयी और उसका कष्ट समाप्त हो गया | यद्यपि उसने जपको सही पद्धतिसे नहीं जपा तथापि उसके भावके कारण उसे योग्य लाभ प्राप्त हुआ | अतः कहते हैं, ‘न पाप मारक है, न पुण्य तारक है, मात्र भाव ही तारक है’ |-तनुजा ठाकुर



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