साधक किसे कहते हैं ? (भाग – ८)


वाचालता, यह एक दुर्गुण है । साधनाकालमें अन्तर्मुख होने हेतु मितभाषी होना या जितना आवश्यक हो उतना बोलना, अति आवश्यक होता है । आज अनेक लोग जो थोडी-बहुत साधना करते हैं, वे अपनी साधनासे अर्जित शक्तिको अनावश्यक बातें करनेसे व्यय (खर्च) कर देते हैं । जब हम समष्टिके कार्य हेतु बातें करते हैं तो उस समय ईश्वरीय तत्त्वसे हमें शक्ति प्राप्त होती है; किन्तु अन्य समय जब हम अनावश्यक बोलते हैं तो हमारी शक्तिका अपव्यय होता है तथा अनावश्यक बोलते समय मिथ्या भाषण करना, किसीका उपहास करना, किसीके विषयमें अनर्गल बातें करना, अपशब्द बोलना, जैसी कृतियां अनेक लोगोंसे सहज ही होती हैं, जिससे हमारी वाणी अशुद्ध होती है एवं वृत्ति बहिर्मुख बनती है; अतः साधकने कहां, कितना बोलना चाहिए ?, इसका भी अभ्यास अपने विवेकसे सतत करना चाहिए । बोलनेसे सम्बन्धी दोषसे आज अनेक लोग कष्ट पाते हैं या दूसरोंको कष्ट देते हैं; इसलिए प्रयास होना चाहिए कि प्रतिदिन स्वयंमें सुधार लाने हेतु हम इस दोषसे सम्बन्धित चूकोंको अपनी ‘स्वाभावदोष निर्मूलन पुस्तिका’ या बहीमें लिखें एवं उस सम्बन्धमें स्वयं सूचना भी दें !



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