साधक किसे कहते हैं ? (भाग – ३)  


साधकमें सीखनेकी एवं पूछकर करनेकी प्रवृत्ति होती है । जिसमें सीखनेकी वृत्ति नहीं होती, ईश्वर या गुरु उसे कभी भी सिखाते नहीं है एवं जिसमें पूछकर करनेकी प्रवृत्ति नहीं होती है, उसका बहुमूल्य समय अपने मनके अनुसार कृतियोंको कर, सीखनेमें व्यय हो जाता है; इसलिए साधकत्व निर्माण करने हेतु पूछकर लेनेकी वृत्ति निर्माण करना अति आवश्यक है । जो भी कुछ हमें नहीं आता हो एवं हमारे लिए उसे सीखना आवश्यक है तो उसे पूछकर या सीखकर लेनेमें कभी भी लज्जा नहीं होनी चाहिए एवं जिसमें सतत सीखनेकी वृत्ति होती है, उसका अहम् सदैव न्यून रहता है । इसी नम्रतारुपी गुणके कारण वह साधनापथपर सदैव अग्रसर रहता है एवं ईश्वर उसे भिन्न माध्यमोंसे सिखाते भी हैं । हमारे श्रीगुरुने तो स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि अध्यात्म पूछ-पूछकर करनेका शास्त्र है ।
साधक किसे कहते हैं ?, यह श्रृंखला इसलिए आरम्भ की है; क्योंकि अनेक लोगोंको लगता है कि वे ध्यान करते हैं या नामजपकरते हैं तो वे साधक है; किन्तु ऐसा है नहीं ! साधकका अर्थ होता है, जो अपने गुणोंसे ईश्वर और गुरुको प्रसन्नकर समाजमें आदर्श व्यक्ति कैसा होना चाहिए ?, वह निर्माण करे । पूर्व कालमें समाज व्यवस्था सुचारू रूपसे इसलिए चलता था; क्योंकि समाजमें साधकत्व था और सभीको ज्ञात था कि उनके आदर्श एवं वर्तन दोनों ही कैसे होने चाहिए ? साधककी वृत्ति निर्माण करके ही एक आदर्श समाजकी रचना की जा सकती है; इसलिए साधककी परिभाषा एवं उसमें कौनसे आदर्श गुण होने चाहिए ?, यह ज्ञात होना आवश्यक है ! चाहे कोई कितना भी नामजप कर ले या ध्यान कर ले, यदि उसमें अच्छे गुण विकसित नहीं होते हैं तो वह ईश्वर या गुरुका कभी भी प्रिय नहीं हो सकता है ।



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