साधक किसे कहते है ?  (भाग – ४)


सत्सेवासे ( सन्तके मार्गदर्शनमें किया जानेवाला सेवा) ईश्वरीय कृपाका सम्पादन होता है; अतः आध्यात्मिक प्रगतिमें इसका विशेष महत्त्व है । सेवा बडी हो या छोटी, प्रमुख या गौण नहीं होती है, सेवा सेवा होती है; अतः सत्सेवाके मध्य जो भी कर्म या कृति करने हेतु दिया जाए, वह ईश्वरीयकृपा प्राप्त करनेका माध्यम है, इस भावसे उसे प्रेम एवं कृतज्ञतापूर्वक करना चाहिए । हमारे आश्रममें देश-विदेशसे लोग आते हैं; किन्तु अधिकांश जिज्ञासु, अपनी इच्छा अनुसार या जिससे उन्हें शारीरिक श्रम अधिक न करना पडे, या कुछ नूतन न सीखना पडे, ऐसी सेवा करनेकी इच्छा दर्शाते हैं, जो साधकत्वका लक्षण नहीं है । गुरु या ईश्वरको ज्ञात है कि साधक या शिष्यके लिए कौनसी सेवा सर्वाधिक उपयुक्त हो सकती है; अतः वे उसीप्रकारकी सेवा उन्हें देते हैं। ऐसेमें ‘वह सेवा मुझे क्यों दी गई ?’, इसमें अपनी बुद्धि एवं समय व्यर्थ करनेके स्थानपर ‘उस सेवाको मैं परिपूर्णतासे कैसे कर सकता हूं ?’, इसप्रकार विचारकर जो सेवा करता है, वह साधक होता है और ऐसे साधकोंकी सेवा ईश्वर चरणोंतक अवश्य ही पहुंचती है एवं वह ईश्वरीय कृपाका अधिकारी बनता है ।



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