साधकोंको बाहरका भोजन क्यों नहीं करना चाहिए ? (भाग-६)


कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामप्रयदाः ॥
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥
अर्थात ‘कडवे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत ‘गर्म’, तीखे, शुष्क (रूखे), दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगोंको उत्पन्न करनेवाला आहार अर्थात भोजन, राजस पुरुषको प्रिय होते हैं । जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और जूठा है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुषको प्रिय होता है ।
भोजनालयका भोजन राजसिक और तामसिक होता है एवं आजकल लोगोंकी वृत्ति रज-तम प्रधान है; इसलिए उन्हें भोजनालयका या बाहरका भोजन अतिप्रिय होता है और लोगोंका आचरण उनकी वृत्ति अनुरूप ही होता है ।
राजसी आहार करनेवाले व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि उत्तेजक भोजन करनेसे साधन-भजन, स्वाध्यायका संयम बिखर जाता है । हमारेद्वारा प्रयुक्त भोजनका तथा हमारे विचारोंका घनिष्ठ सम्बन्ध है । मैंने धर्मप्रसारके मध्य ऐसे अनेक लोगोंको देखा है, जिन्हें बाहरका भोजन अतिप्रिय होता है और मैंने पाया है कि ऐसे लोग दोष निर्मूलन या अहं निर्मूलन या नामजप नहीं कर पाते हैं । उनकी वृत्ति अस्थिर होती है । यदि उन्हें शारीरिक रोग नहीं होता है तो उन्हें कोई न कोई मनोरोग तो होता ही है । आपको बता दें कि सभी प्रकारके मनोरोगका मूल कारण अनिष्ट शक्तियां ही होती है, कटु शब्दोंमें कहें तो मनोरोगीकी देह भूतावेषित होती है । रज व तम प्रधान भोजनसे शरीरमें अनिष्ट शक्तियां सहज ही प्रवेश कर जाती हैं; इसलिए हमारे यहांपर ‘होटल’ संस्कृति नहीं थी अन्यथा जिस देशके प्रत्येक राज्यमें पकवानके इतने प्रकार हों, जहां कुटुम्बमें खाने-खिलानेकी इतनी सुन्दर व्यवस्था हो, वहां भोजनालयमें भोजन करनेकी व्यवस्था क्या प्रचलनमें नहीं होती ? हमारे मनीषी जानते थे कि जब अन्नको आर्थिक लाभ हेतु पकाया जाएगा तो उसमेंसे सुसंस्कार कालांतरमें नष्ट होंगे ही ।



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