साधना मार्गमें कष्ट


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साधना ईश्वर तक पहुंचनेका मार्ग है । किसीको यह मार्ग कष्टोंसे भरा प्रतीत होता है और कोई इन्ही कष्टोंमें आनंदका अन्वेषण कर लेता है । कष्टोंको आनंदमें परिवर्तित करनेकी एकमात्र युक्ति है, कष्टोंको सहन करना सीख लेना । यह प्रसंग इसी विषयकी पुष्टि करता है ।

एक रात एक मूर्तिकारने एक विचित्र स्वप्न देखा । वह एक छायादार वृक्षके नीचे बैठा था । सामने एक प्रस्तर खंड (पत्थरका टुकडा) पडा था । मूर्तिकारने पत्थरका टुकडा उठा लिया और अपने थैलेमें रखे उपकरण (औजार) निकालकर अपनी कल्पनाको मूर्तरूप देने हेतु जैसे ही उसपर प्रथम प्रहार किया, वह आघातकी पीडासे चीत्कार करने लगा, “मुझे मत मारो”, दूसरी चोटपर वह रोने लगा । मूर्तिकारने पत्थरका वह टुकडा पुनः भूमिपर रख दिया और अपनी अभिरुचिका (पसंदका) कोई दूसरा पत्थर उठाकर उसे गढनेमें लग गया । उस पत्थरने धैर्य रखा और मौन रहकर पीडा सहता रहा । कुछ ही समयमें वह पत्थर एक देवीकी मूर्तिमें परिवर्तित हो गया । वह मूर्तिकार मूर्तिको वहीं वृक्षके नीचे रखकर आगे चला गया । एक दिन वह मूर्तिकार उसी मार्गसे रमण कर रहा था । वहां पहुंचकर उसने देखा कि जो देवीकी मूर्ति उसने बनाई थी, उसकी पूजा अर्चना हो रही थी । वहां बहुत भीड लगी थी । भजन-आरती आदि गाए जा रहे थे । दर्शनके लिए भक्तोंकी लम्बी पंक्ति लगी थी । जब वह मूर्तिकार उस मूर्तिके निकट पहुंचा तो उसने देखा मूर्तिके सामने भांति-भांतिके मिष्ठान, फल, मेवे और भी अनेक वस्तुएं रखी हुई थीं । उसकी दृष्टि उस पत्थरपर भी पडी जो उसने पहले उठाया था और जो रूदन कर रहा था । वह टुकडा भी एक कोनेमें पडा था और भक्त उसपर नारियल फोड-फोडकर देवीकी मूर्तिपर अर्पित कर रहे थे; तभी अकस्मात मूर्तिकारका स्वप्न भंग हो गया और वह इस विचित्रसे स्वप्नके संबंधमें चिंतन करने लगा । उसने इस स्वप्नका यह निष्कर्ष निकाला कि जो लोग आरम्भमें कष्ट सह लेते हैं उनका जीवन यशस्वी बन जाता है और वे सभीसे सम्मान पाते हैं और जो चुनौतियों एवं कष्टोंसे भयभीत होकर पलायन कर लेते हैं उन्हें जीवन भर कष्ट झेलना होता है ।  उनका कोई सम्मान नहीं करता ! समय व्यतीत हो जानेपर उनके पास पश्चातापके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता ।



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