साधना क्यों करें ? (भाग – ९)


प्रारब्धके तीन प्रकार होते हैं, साधारण, मध्यम एवं तीव्र ! साधारण प्रारब्धके लिए तीव्र साधना, मध्यम प्रारब्धपर मात पाने हेतु गुरुकृपा एवं तीव्र प्रारब्धको भोगनेके अतिरिक्त और कोई पर्याय नहीं होता है । जैसे तूणीरसे बाण निकल जाए तो वह लक्ष्यको भेदे बिना नहीं रह सकता है, वैसे ही तीव्र प्रारब्धमें जो है उसे भोगना ही उसका एकमात्र पर्याय है । जैसे एक व्यक्तिने मुझसे एक बार पूछा, “मेरा पुत्र मानसिक रूपसे विकलांग है, क्या वह ठीक हो सकता है ?” मानसिक विकलांगता तीव्र प्रारब्ध होता है, ऐसा जीव साधना नहीं कर सकता है; इसलिए उसके कष्ट दूर होनेकी सम्भावनाएं नगण्य होती हैं । मैंने अपने आध्यात्मिक शोधमें पाया है कि आजकल चूंकि अनिष्ट शक्तियोंसे समाज त्रस्त है तो ऐसेमें जिन्हें तीव्र स्तरके शारीरिक और मानसिक विकलांगता होती है, उन्हें अपेक्षाकृत अनिष्ट शक्तियोंका भी तीव्र कष्ट होता है, इससे उनकी देखभाल करनेवाले लोगोंको भी कष्ट होता है । इसे एक उदाहरणसे समझाती हूं, जब मैं २०११ में कश्मीरमें थी तो एक व्यक्तिके मानसिक विकलांग पुत्रसे मेरी भेंट हुई, उसकी दादी ही उसका पालन पोषण करती हैंं; क्योंकि उनकी माताजीने दूसरा विवाह कर लिया ! मैंने देखा कि तीनों दिन वह १२ वर्षीय बच्चा अपना बुशर्टका कॉलर चबाता रहता था । जब अनजाने ही एक बार उसकी ओर यूं ही कुछ क्षण देख रही थी तो उनकी दादी बोलने लगी कि एक भी वस्त्र अच्छा नहीं रहने देता है, नूतन वस्त्रको एक ही दिनमें चबाकर पहनने योग्य भी नहीं छोडता है, हम उसके इस आदतसे बहुत दुखी हैं ! अब यह जो उस बच्चेका कृत्य है, वह अनिष्ट शक्तियोंके कारण था, उसका देह अतृप्त पूर्वजोंसे आवेशित था और वे पूर्वज ही उसकी दादी और पिताजीको व्यथित करने हेतु उस बच्चेसे ऐसा करवाते थे । वे साधना करने हेतु इच्छुक नहीं थीं; इसलिए मैंने कुछ नहीं बोला; किन्तु इस प्रकारके कष्ट साधना करनेपर दूर हो सकते हैं । एक सरलसा सिद्धान्त ध्यानमें रखें, जन्मज: जो कष्ट होते हैं, वह मूलत: प्रारब्धवश होते है; उन्हें भोगना ही सबसे अच्छा पर्याय होता है, अन्यथा वह कष्ट अगले जन्ममें भोगना ही पडता है; इसलिए तीव्र प्रारब्धमें सन्त भी हस्तक्षेप नहीं करते हैं; किन्तु यदि शिष्य पूर्णत: समर्पित हो और उसके माध्यमसे वृहद कार्य होनेकी सम्भावना हो तो गुरु, शिष्यके तीव्र प्रारब्धमें भी हस्तक्षेप करते हैं । इसके मैंने कई उदाहरण देखें हैं; इसलिए गुरुको ‘परब्रह्म’की उपाधि दी गई है । इस सम्बन्धमें अपने कुछ अनुभव मैं कभी और साझा करूंगी । (क्रमश:)



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