साधना क्यों करें ? (भाग – ५)


आनन्दकी अनुभूति लेने हेतु करें साधना

सुख और दुःखसे परेकी अवस्थाको आनन्द कहते हैं ।  सतत सुख पानेकी इच्छा प्रत्येक जीवमात्रमें होती है; क्योंकि प्रत्येक जीवकी निर्मिति उस सत-चित-आनन्द स्वरूपी ब्रह्मसे हुई है; अतः अपने मूलकी ओर जानेका आकर्षण सभी जीवोंमें होता है ।  इसलिए सभी जीव सुख पाने हेतु प्रत्यनशील रहते हैं | यहां तक कि बरसातमें भोजनकी अडचन होनेसे जो दुःख होगा उससे बचने हेतु एक छोटी सी चींटी भी अपने भोजनका संग्रह करती है | किसी भी प्राणीको दुःख प्रिय नहीं होता और सभी सुख चाहते हैं; किन्तु मायासे सुखकी प्राप्ति क्षणिक होती है और जो सुखका कारण बनता है वही दुःखका भी कारण बन जाता है, जैसे किसीको पकौडे खाना प्रिय हो तो यदि वह सिमित मात्रामें सेवन करे तब तो ठीक है; किन्तु जिह्वाके सुख हेतु यदि वही पकौडे अधिक मात्रामें  खा ले तो वह उसके दुःखका कारण बन जाता है; उसी प्रकार पुत्रका जन्म सुख देता है, किन्तु यदि वही सतत अवज्ञा करे एवं कुमार्गपर चला जाए तो वह दुःखका कारण बनता है; पुत्रीका विवाह सुख देता है, किन्तु यदि वह अपने वैवाहिक जीवनमें सुखी न हो तो वही विवाह दुःखका कारण बन जाता है ।  इस प्रकार मायामें सुख-दुःखका क्रम अविरत चलता रहता है, मात्र साधना करनेसे हम आनन्दकी अवस्थाकी अनुभूति ले सकते हैं और यह आनन्द मात्र और मात्र साधनासे प्राप्त होता है; इसलिए साधना करें, क्योंकि हम जितना आनन्दी रहते हैं सुख और दुःखके प्रभावसे उतने ही अछूते रहते हैं ।



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