साधना, साधक एवं उन्नतसे सम्बन्धित प्रसार संस्मरण (भाग – ५)


अधिकांश समय गुरु एवं ईश्वरने धर्म प्रसारकी सेवा एकाकी करनेकी आज्ञा दी है ; किन्तु मेरा एकाकी होना, मेरे लिए कभी भी अडचन नहीं बनी, सेवाके मध्य मुझे जो भी विनम्र साधक जीव मिले, उन्हें अपने साथ लेकर गुरुकार्य करती रही हूं एवं जिस भी जनपदमें भी रही, वहां अधिकतर बच्चों और युवाओंने अत्यधिक उत्साहसे सेवामें सहयोग दिए हैं  और विशेषकर उन्हें संस्कारित करनेमें अधिक रुचि भी है; क्योंकि वे ही हमारे कलके भविष्य हैं और अल्पायुके संस्कार शीघ्र नष्ट नहीं होते, अपितु जीवन पर्यन्त रहते हैं ।
आज उनसे जुडे कुछ रोचक प्रसंग आपके साथ बांटना चहुंगी, जिससे उन बच्चोंके साधकत्वका आपको भी बोध होगा । ख्रिस्ताब्द  १९९९ में झारखण्डके धनबाद जनपदमें प्रसारके मध्य लगातार कुछ दिनोंतक मेरे प्रवचनके समाचार, वहांसे स्थानीय समाचारपत्रोंमें छपता रहा, अब ईश्वर कृपा कहें या और भी कुछ, मुझे प्रसिद्धि पानेमें कभी भी रुचि नहीं रही है; यथार्थमें मुझे इनसबसे दूर रहना ही अच्छा लगता है; इसलिए कई बार कुछ पत्रकार मुझे अहंकारी होनेकी उपमासे भी अलंकृत कर चुके हैं ।
अनेक नगरोंमें कुछ लोग अपनी प्रसिद्धि हेतु प्रवचन करवाते हैं और उसका वृत समाचार पत्रके स्थानीय पृष्ठमें छपवा देते हैं और उसके नीचे अपना नाम डलवा दते हैं, ऐसा मेरा अनुभव रहा है । गुरुकार्य हो रहा है न, यह सोचकर, मैं साक्षीभावमें रहकर इसे अनदेखा कर देती हूं ।
धनबादमें ग्रीष्मकालीन विद्यालयीन अवकाश चल रहा था; अतः मैं अपनी वानर सेनाको लेकर गुरुपूर्णिमाके प्रसार हेतु निकल जाती थी । एक घरमें जब हम गए तो उस घरके मुखियाने मेरा अभिज्ञान(पहचान) कर लिया और कहने लगे “तुम ही तनुजा ठाकुर हो, मैं तुम्हारे बारेमें प्रतिदिन समाचार पत्रमें पढता रहता हूं” और उन्होंने हमें अपने घर बुलाकर हमारी पूरी टोलीको मीठा शीतपेय (शर्बत उर्दू शब्द है) पिलाया और मुझसे आध्यात्मिक प्रश्न पूछने लगे, उनकी बातोंमें द्वेष और अहंकार दोनों भाव स्पष्ट रूपसे परिलक्षित हो रहे थे,  मैं थोडी आश्चर्यचकित भी थी कि वे मुझे आदरपूर्वक बुलाकर इस प्रकारकी बातें क्यों कर रहे हैं ? मैं अहंकारियोंसे उलझकर अपने समय और शक्ति व्यय करनेमें विश्वास नहीं रखती; अतः मैंने उनके प्रश्नोंका उत्तर न ही देना ठीक समझा । बात ही बातमें उन महोदयने बताया कि वे ४०  आध्यात्मिक संस्थाओंसे जुडे हुए हैं और १० उच्च कोटिके गुरुसे गुरुमुख (दीक्षित) हुए हैं ।  उन्होंने जो भी प्रश्न पूछा, मैंने विनम्रतासे कहा “ आप ही बताएं मुझे इस विषयमें विस्तृत जानकारी नहीं है ।”  दस मिनिट उनकी बातें सुननेके पश्चात् उन्हें नमस्कार कर, हम दूसरे घरमें प्रसार करने हेतु वहांसे निकल गए । वह घर थोडी दूरीपर था, एक कक्षा नौका छात्र भी मेरे साथ था और उसे मेरे प्रश्नोंके उत्तर अत्यधिक आकर्षित करते थे,  उसने मुझसे कहा “ दीदी, आपको उनके सभी प्रश्नोंके उत्तर ज्ञात थे; परंतु आपने उनके एक भी प्रश्नके उत्तर क्यों नहीं दिए, आप तो उन्हें प्रत्युत्तर देकर उनका मुख बंद कर सकती थीं ।” उसे उन महोदयद्वारा ‘उसकी दीदी’ का अपमान सहन नहीं हो रहा था । मैं कुछ बोलती इससे पहले एक छठी कक्षाका बालसाधक बोल पडा “ देखा नहीं, कितना अहम छलक रहा था उनसे, बताया था न दीदीने, ईश्वर नम्र लोगोंको ही ज्ञान देते हैं  !”  वह बोलता गया “ दीदी, कितना मूर्ख है वह विद्वान,  ईश्वरप्राप्तिके लिए तो एक संस्था और एक ही गुरु पर्याप्त है न, वह ४०  संस्थाओंमें भटक रहा है !”  मैं अपनी हंसी रोक नहीं पाई और उसे उसी समय आगे कुछ भी बोलनेसे मना कर दिया ! मैंने मन ही मनमें कहा यह तो गुरु गुड और चेला चीनीवाली बात हो गयी ।  , उन बच्चोंको हमसे जुडे चार माह ही हुए थे; किन्तु उनकी बातें बडे-बडोंको चकित कर देती थी । मैं उस समय जिस साधकके घर रहती थी, वह एक संयुक्त कुटुंब था, ये उनके ही घरके बच्चे थे ।
एक उन्हीं बच्चोंके संदर्भमें दूसरा प्रसंग बताती हूं –
एक दिन हम सब कहीं चार पहिए वाहनसे जा रहे थे और हमारी बच्चोंकी टोली भी साथ थी । एक बच्चेने एक अच्छी प्रसारकी पद्धति अपनाकर, अनेक बच्चोंको बाल संस्कार वर्गमें अत्यल्प समयमें जोडा था, मुझे पता नहीं था कि वह योजना किसने बनाई थी । मैंने सबसे पूछा “ इस योजनाका सूत्रधार कौन था ?” एक बालसाधिकाने कहा, “ दीदी, मैंने सोचा था यह सब ।” मैंने उसकी स्तुति एवं उत्साहवर्धन हेतु कुछ कहनेवाली थी कि एक दूसरा बालसाधक बोल पडा “ अब तुमसे ईश्वर दूसरा कुछ नहीं करवा सकते, तुममें अहम् आ गया “ ! मैं कुछ बोलनेसे पहले ही हंस पडी ।
इसी टोलीके विषयमें एक तीसरा प्रसंग बताती हूं –
ग्रीष्मकालीन विद्यालयीन अवकाशके समय उसी नगरमें एक पुस्तक मेला लगनेवाला था, मैंने सब बच्चों एवं कुछ युवा साधकोंसे पूछा क्या कोई सेवाके लिए वहां जाना चाहेगा; क्योंकि मैं पुस्तक मेलेमें हमारे श्रीगुरुके ग्रंथोंकी प्रदर्शनी लगानेका सोच रही थी, तीन ग्यारहवीं कक्षाके युवा साधकोंने कहा कि वे पूर्ण उत्तरदायित्व लेकर सेवा करेंगे । मुझे बडी प्रसन्नता हुई । मैंने  उन्हें सारी सेवाकी बारीकी समझा दी और वैसे भी हमारी टोली कई देवालयोंमें (मंदिरोंमें) ग्रन्थ प्रदर्शिनीकी सेवा कर चुकी थी । मेरे पास गुरुपूर्णिमाकी तैयारीकी अनेक सेवायें थीं । सात दिनके पुस्तक मेलेमें पहले दिन मैं संध्या छह बजे वहां पहुंच पाई थी और देखा कि हमारी नटखट टोलीने वहांकी व्यवस्थाको अत्यधिक कौशल्यसे सम्भाल रखी है, यहां तक कि आसपासके स्टॉलवाले सब कहने लगे कि आप ही हैं उनकी दीदी, आपके बच्चे अच्छेसे प्रशिक्षित (well trained) हैं, ऐसी देखभाल तो हमारे प्रदर्शनी कक्षके लडके भी नहीं कर पाते हैं जो हमारे कार्यालयमें अनेक वर्षोंसे कार्य कर रहे हैं । वे समय-समयपर ग्रंथोंकी विशेषतायें भी माइकपर बता कर आ जाते थे । मैं थोडी निश्चिंत हो गयी और अन्य सेवामें व्यस्त होनेके कारण चौथे दिन लगभग चार बजे पुस्तक मेलेमें जा पायी । वहां गयी तो देखा कि प्रचण्ड धूपके कारण किसीका भी प्रदर्शनी कक्ष नहीं खुला था और सब अपने-अपने स्टालके भीतर बैठे थे । मात्र हमारा प्रदर्शिनी कक्ष खुला ही नहीं था अपितु चार बालसाधक स्वेदसे (पसीनेसे) लथपथ और धूपसे लाल हुए मुख लिए खडे धर्मवीर समान खडे हैं । उन सबपर धूप कि खडी किरणें पड रही थीं । उनकी स्थिति देखकर मेरा मातृत्व  छलक पडा और  मैंने विह्वल होकर पूछा, “ इतनी धूप है, किसीने भी अपना प्रदर्शिनी कक्ष नहीं खोला है, आप लोगोंने क्यों खोल दिया इसे ?, आधे घंटेमें धूपके कम होनेपर खोलना चाहिए था तो आपलोगोंको इतना कष्ट नहीं होता !”
जिस युवा साधकको हमने यह उत्तरदायित्व दी थी, वह अत्यंत सहजतासे कहने लगा “ दीदी, वे सारे लोग तो धन अर्जित करने हेतु लिए प्रदर्शिनी लगाए है  और हमने गुरुकृपा पानेके लिए, क्या पता परम पूज्य गुरुदेव किसी वेशमें यहां आ जाएं और हमारा कक्ष बंद मिले तो हम तो उनकी कृपासे वंचित नहीं रह जाएंगे और वैसे भी समय तो चार बजेका ही है और आपने ही तो समयबद्ध होकर सेवा करनी चाहिए यह बताया था;  इसलिए हम सबने सोचा कि प्रदर्शनीका जो समय निर्धारित है, हम उसी समय अपनी सेवा आरम्भ कर देंगे ।” और सारे सहयोगी साधकने उसके हांमें हां मिलाई,  मुझे उन बच्चोंकी सरलता और भावपर इतना प्रेम उमडा कि उसे शब्दोंमें व्यक्त नहीं कर सकती ! मैंने मन ही मन उन सबके लिए परम पूज्य गुरुदेवसे उनके कल्याण हेतु प्रार्थना की ।  मैं तुरंत ही पासके साधकके घरसे ओढना (चादर) लेकर आई और वहां सर्वप्रथम छाया की और उन बच्चोंके खानेके लिए उनके रुचि अनुरूप अल्पाहार क्रय कर लायी और उन्हें प्रेमसे खिलाया; क्योंकि उस समय उनके उस सेवा भावको देख मैं इतना ही कर सकती थी ! देहलीके एक बडे पुस्तक प्रकाशक जो ठीक हमारे सामने थे वे कुछ समय पश्चात् मुझसे कहने लगे, “ लगता है आपने बच्चोंको बचपनसे ही प्रशिक्षण दी  है ।”  मैंने कहा “ नहीं भैया,  इन बच्चोंसे मेरा परिचय ही पांच माह पूर्व हुआ है ।” वे कहने लगे तब तो कहना पडेगा “ गुरु गुड और चेला चीनीवाली बात हो गयी !”  मात्र दुःखकी बात यह है कि कालांतरमें मेरा उस जनपदमें जाना नहीं हो पाया और उनकी समष्टि साधना छूट गयी; क्योंकि वे भी सभी भारतके अन्य नगरोंमें पढने हेतु चले गए । ये सारे बच्चे आज बडे और प्रसिद्ध व्यावसायिक प्रतिष्ठानमें(कंपनीमें) उच्च पदपर आसीन हैं और इनमेंसे दो बच्चे अनेक वर्ष पश्चात् जब मुझे फेसबुक पर मिले तो उन्होंने ‘हाय'(hi)  संबोधित नहीं किया, अपितु “प्रणाम दीदी, आप कैसी हैं” इस प्रकारसे वार्तालाप आरंभ की । इनमेंसे एक युवा साधिका जो साधना करती रहीं, वे आज जीवन्मुक्त हैं एवं सनातन संस्थाके विदेश प्रसारमें महत्वपूर्ण सेवा कर रही हैं, निश्चित ही यदि वे सभी बच्चे संपर्कमें रहते तो उनमेंसे और भी कुछ आज जीवन्मुक्त होते !
सचमें बच्चे कोई बुरे नहीं होते; हम उन्हें संस्कारित नहीं कर पाते हैं ! – तनुजा ठाकुर (१४.१.२०१४)



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