कलके मेरे निम्नलिखित लघु लेखपर एक पाठकने कहा है कि आपका यह लघु लेख शास्त्र सम्मत नहीं है; क्योंकि उनके अनुसार, (उन पाठक महोदयके अनुसार) मनुष्यके लिये नित्य कर्मके बाद ही अन्य नैमित्तिक कर्म, काम्य अनुष्ठान, जप आदिकी पात्रता आती है ।


कलके मेरे निम्नलिखित लघु लेखपर एक पाठकने कहा है कि आपका यह लघु लेख शास्त्र सम्मत नहीं है; क्योंकि उनके अनुसार, (उन पाठक महोदयके अनुसार) मनुष्यके लिये नित्य कर्मके बाद ही अन्य नैमित्तिक कर्म, काम्य अनुष्ठान, जप आदिकी पात्रता आती है ।

अनिवार्य नित्य कर्म इस प्रकार  हैं –

(१) स्नान, (२) नित्य स्नानांग तर्पण (देवता, ऋषि, पितर), (३) संध्या-प्राणायाम, गायत्री जप, (४) नित्य अग्निहोत्र, (५) ब्रह्मयज्ञ-स्वाध्याय, अध्ययन, अध्यापन, (६) पंचदेवपूजन (सूर्य, विष्णु, गणेश, अंबिका, शिव), (७) पितृयज्ञ-श्राद्ध तर्पण, (८) पंचयज्ञ-वैश्वदेव, गो, श्वान, पक्षी, चींटी, मनुष्य, वनस्पति आदिको भोजन/सत्कार/पूजन आदि, (९) नित्य सूर्य नमस्कार एवं (१०) नित्य दान

मेरा लेख इस प्रकार था –

समर्पित शिष्यके ऊपर नहीं लागू होते हैं पञ्च महाऋण !

सामान्य गृहस्थ या व्यक्तिको, देव, ऋषि, पितर, अतिथि एवं समाजके (या भूत ऋणके) प्रति पञ्च ऋणका भुगतान करना पडता है, इस हेतु शास्त्रोंमें पञ्च महायज्ञका विधान बताया गया है, तभी उनका जीवन सुखी होता है ।  इसके विपरीत जो भी शिष्य पूर्ण रूपेण गुरुके शरणागत होकर साधनारत रहता है (पूर्ण समय गुरु या गुरु कार्य हेतु समर्पित रहता है), उनपर ये ऋण लागू नहीं होते हैं एवं समर्पित शिष्यकी आध्यात्मिक प्रगति द्रुत गतिसे होनेका एक कारण यह भी है । इसीसे गुरुका महत्त्व कितना है ?, यह ज्ञात होता है । ऐसे परमब्रह्मस्वरूपी गुरु तत्त्वको नमन है ।

इस लघु लेखमें मैंने यह स्पष्ट किया है कि सामान्य गृहस्थ या व्यक्तिको, देव, ऋषि, पितर, अतिथि एवं समाजके (या भूत ऋणके) प्रति पञ्च ऋणका भुगतान करना पडता है | समर्पित शिष्यके ऊपर यह विधान लागू नहीं होता है, इस सम्बन्धमें गीतामें भी भगवान कृष्ण कहते हैं –

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

अर्थात सभी धर्मोंको (इसमें नित्य कर्म भी है) त्याग, तुम मेरी शरणमें आओ, मैं तुम्हें तुम्हारेद्वारा सभी धर्मकर्तव्योंके पालन न करनेसे जो पाप लगा होगा, उससे भी मुक्त करूंगा और मोक्ष भी दूंगा ! यह सम्पूर्ण शरणागतिका महत्त्व है !

गुरु भी कृष्ण स्वरुप होते हैं; इसलिए जो भी शिष्य गुरुके प्रति या गुरुके कार्यके प्रति पूर्ण रूपसे समर्पित हो जाता है अर्थात उसके लिए उसका सम्पूर्ण जगत गुरु या गुरुकार्यमें ही सिमट जाता है, ऐसे शिष्योंके ऊपर अनिवार्य नित्य कर्म भी लागू नहीं होते हैं ! ईश्वरीय कृपासे ऐसे अनेक उदाहरण मैंने प्रत्यक्षमें देखे हैं | एक उदाहरण बताती हूं – मैं उत्तर प्रदेशमें २०१७ में एक सन्तके आश्रममें गई थी | उनकी गद्दीपर जो सन्त-शिष्य विराजमान हैं, जब उनके दर्शन हुए तो मैंने उन्हें प्रणामकर हमारी मासिक ‘वैदिक उपासना’ पत्रिका अर्पण किया | उन्होंने उसे प्रेमसे हाथमें लेकर बोला, “बहुत अच्छी पत्रिका है; किन्तु मैं पढा-लिखा नहीं हूं”, यह कहकर उसे एक ओर रख दिया | उसके पश्चात उनके पूछनेपर मैंने अपने श्रीगुरुके उद्देश्य अर्थात हिन्दू राष्ट्रके विषयमें बताया और इसी सम्बन्धमें जो भी अल्पसा हमसे प्रयास हो रहा है, वह भी बताया | यह बतानेपर ही उन्होंने बताना आरम्भ कर दिया कि भविष्यमें भारत विश्व गुरु बनेगा | उन्होंने आगे बताया कि कैसे वे एवं अन्य सन्त मिलकर पाकिस्तान जैसे आसुरी राष्ट्रपर अपनी कडक दृष्टि रखे हुए हैं ? कैसे सन्तगणके सूक्ष्म प्रभावके कारण केंद्रमें कांग्रेसके स्थानपर भाजपा शासन आई है ? और भी उन्होंने बहुत सी बातें बताई जो आपको हम यहां इसलिए नहीं बता सकते हैं क्योंकि अभी उसका समय नहीं आया है और वे सम्भवत: मात्र हमें ही बताना चाहते थे; क्योंकि जो भी अन्य भक्त उस मध्य आते थे उसे वे प्रसाद देकर भेज देते थे ! उनके आशीर्वचनरूपी सभी स्थूल और सूक्ष्मकी बातें सुनकर मैं भाव-विभोर हो गई कि सन्तगण हम सबके लिए कितना कर रहे हैं !

 उनके शिष्योंने कहा, ‘बडे आश्चर्यकी बात है कि बाबा भी ऐसी बातें करते हैं, हमने किसीके समक्ष उन्हें ऐसे बोलते हुए नहीं देखा है !’ वे एक घंटे हमें सब बताते रहे और जब रात्रिमें उनसे प्रातः निकलनेके लिए अनुमति लेने पहुंची तो पुनः ऐसी बातें उन्होंने आधे घंटे की और हमें ढेरों आशीर्वाद, प्रसाद और प्रेम दिया | अब यहां मैं आपको क्या बताना चाह रही हूं कि उन्होंने स्वयं कहा कि मैं पढा-लिखा नहीं हूं; किन्तु वे सूक्ष्मसे ब्रह्माण्डके स्तरपर कार्य कर रहे थे ! एक अशिक्षित व्यक्ति शास्त्रमें  वर्णित नित्य कर्म कितना कर पाते होंगे ?, यह तो आपको ज्ञात ही होगा ! वस्तुत: उनपर प्रचंड गुरुकृपा थी, मुझे उनमें उनके श्रीगुरुके तत्त्वकी अनुभूति भी हुई ! उन्होंने सब कुछ अपने गुरुकी सेवासे नहीं अपितु मात्र अपने गुरुकी आज्ञाका पालनकर (गोपालनकर) प्राप्त किया था ! उनके श्रीगुरुने अपना उत्तराधिकारी उन्हें बनाया जबकि उनके पास अनेक वैदिक विद्वान भक्त भी थे | मैं उन गुरुका नाम नहीं लेना चाहती हूं किन्तु आपको मेरा आशय समझमें आ ही गया होगा | मैंने ऐसे ही समर्पित शिष्योंके लिए यह बात कही थी | यह तो एक उदाहरण है, गुरुकृपासे ऐसे और भी कई उदाहरण मैंने देखे हैं ! वस्तुत: मेरा मानना है, जहांपर आकर सारे धर्मशास्त्र समाप्त होते हैं, वहींसे श्रीगुरुका शास्त्र (उनकी धर्म या कृपाका शास्त्र) आरम्भ होता है ! श्रीगुरु चरित्रमें संदीपन नामके गुरुभक्तका उल्लेख है, जो काशी विश्वनाथकी सीढियोंपर अपने कुष्टरोगी श्रीगुरुकी सेवामें इतना रम जाता है कि उसे बारह वर्षोंतक अपने इष्ट भगवान विश्वनाथके दर्शनका भी समय नहीं मिला और उनकी इस भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट होकर उनसे वरदान मांगनेको कहते हैं ! अब  यहां भी उस गुरुभक्तने गुरुसेवामें होनेके कारण नित्यकर्म नहीं कर पाया तो भी साक्षत विष्णु उनके पास प्रकट हुए ! किन्तु यह सब बातें आपको तभी समझमें आएंगी जब आप एक उच्च कोटिके सन्तके शरणमें रहकर अर्थात पूर्ण रूपसे समर्पित होकर साधना करेंगे, अन्यथा शब्दजालके अटकनेकी सम्भावनाएं बनी रहेंगी ! ऐसे समर्पित शिष्य निश्चित ही जीवनमुक्त आत्माएं होती हैं; क्योंकि उनका सम्पूर्ण संसार उनके श्रीगुरु ही होते हैं, उनके लिए इस संसारकी अन्य सर्व बातें अर्थहीन होती हैं ! – तनुजा ठाकुर



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