संगतिका संस्कारोंपर प्रभाव


प्रायः देखा गया है कि सुसंस्कारों अथवा कुसंस्कारोंके निर्माणमें वातावरण सबसे अधिक सहायक होता है । मनुष्य जैसे संसर्गमें रहेगा, प्रायः उसीके अनुरूप उसके संस्कारोंका, चरित्रका निर्माण होगा । वातावरण या संगतिसे व्यक्ति के संस्कार प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते । इस सम्बन्धमें एक छोटीसी कथा है कि एक हाटमें एक बहेलिया दो तोते बेचने आया । संयोगसे उस राज्यके राजा भी उधरसे निकल रहे थे । राजाने बहेलियेसे तोतेका मूल्य पूछा । बहेलियेने कहा- महाराज ! तोतेसे ही पूछ लीजिए । राजाने एक तोतेसे कुछ प्रश्न किए, तोतेने राजाके प्रश्नोंका सटीक उत्तर दिया तो राजाने अच्छा मूल्य देकर वह तोता ले लिया । तत्पश्चात् दूसरेका मूल्य पूछा – बहेलियेने कहा – राजन् ! उससे भी पूछ लीजिए, चूंकि राजा पहले तोतेकी बातोंसे सन्तुष्ट थे, इसलिए बिना चर्चा किए उसी मूल्यपर दूसरेको भी उन्होंने मोल ले लिया । प्रासादमें (महलमें) दोनोंके पिंजरोंको टांग दिया  गया । कुछ दिनोंतक राजा विद्वान तोतेसे सत्संग करते रहे ।  एक दिन दूसरे तोतेसे कुछ प्रश्न किए तो उसने राजाको अपशब्दोंमें उत्तर दिया । राजा क्रुद्ध होकर पिंजरेमें से उस दुष्ट तोतेको पकडकर उसे मारना ही चाहते थे कि विद्वान तोतेने कहा – ‘महाराज ! हम दोनों भाई हैं । हम दोनों भाइयोंके पिंजरे एक ही बाडेमें भिन्न स्थानोंपर टंगे हुए थे । मेरे पिंजरेके पास साधू लोगोंका प्रतिदिन सत्संग होता था; अतः मुझे सत्संग सुननेको मिला; किन्तु दूसरे छोरपर टंगे पिंजरेके पास कसाइयोंका बाडा था, उसमें मेरे भाईको प्रतिदिन गालियां सीखनेको मिलीं, इस प्रकार मुझमें कोई विशेष गुण नहीं है और न मेरे भाईमें कोई दुर्गुण है, संसर्गके कारण हम दोनोंके स्वभावमें भिन्नता है । राजाने यह सुनकर दुष्ट प्रकृतिके तोतेको पिंजरेसे उडा दिया| ।



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