संत गुरुनानकदेव एवं दो गांव
सिखधर्मकके प्रणेता, संत गुरुनाननकदेव,अपने शिष्योंमेंसे एकके साथ एक गांवमें पधारे जहां अधिकांश लोग अच्छे, मृदुल, सौम्य तथा धार्मिक प्रवृत्तिके थे । गुरुनानकजी तथा उनके शिष्य इस गांवको देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए जहांके लोग इतने सदाचारी थे । गुरुनानकजी अत्यंत आनंदित थे । उन्होंने उस ग्रामसे जाते हुए कहा,”यह स्थान नष्ट हो जाए । इस स्थानका कोई अस्तित्व न रहे।“
उनके शिष्यने कहा,”आप ऐसा कैसे कह सकते हैं ? कितना आश्चर्यजनक है यह गांव ! सभी ग्रामवासी ईश्वरके प्रति कितने समर्पित हैं ! क्या आप इसी प्रकारसे अपनी करुणा व्यक्त करते हैं?”।
तब गुरुनानकजी अपने शिष्यको किसी अन्य गांवमें ले गए जहांके लोग भ्रष्ट एवं व्याभिचारी थे तथा वहां सभी प्रकारके क्लेश होते थे । गुरुनानक देवजीने कहा,”मैं इस गांवके समृद्धिकी कामना करता हूं।“
“यह क्या है ? यह ऐसा स्थान है जो नष्ट होने योग्य है और आप कहते हैं यह समृद्ध हो जाए !”
गुरुनानकजीने उत्तर दिया,”यहां ध्यान दो । मैंने कहा कि पहलेवाला स्थान नष्ट हो जाना चाहिए । ऐसा इसलिए है क्योंकि वहांके लोग इतने अच्छे, इतने आध्यात्मिक हैं, जब गांव नष्ट होगा, वे लोग बिखर जाएंगे । एक किसी एक गांवमें जाएगा, दूसरा किसी अन्य गांवमें, अन्य किसी अन्य स्थानपर जाएगा, जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने सद्गुणोंका प्रसार कर सकेगा । इस विनाशमें शुभका प्रसार होगा,इसलिए यह वस्तुतः नष्ट होना नहीं है । दूसरे गांवमें, जो अत्यंत बुरा है, मैंने कहा वे समृद्ध हो जाएं । वे लोग अपने गांवकी सीमारेखासे बाहर न जाएं अन्यथा उनकी बुराइयोंका सर्वत्र विस्तार जाएगा।वे यहीं समृद्ध हों । यही दैवीय न्याय है । यदि हम अपना दृष्टिकोण गूढ रखेंगे तो हम अधिक वृहद् वास्तविकताका अवलोकन कर सकेंगे और तभी हम दैवीयव्यवस्थाको समझ सकेंगे अन्यथा वस्तुतः हम भ्रमित ही रहेंगे |”
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