सन्त किसे कहते हैं


समाजमें, सन्त किसे कहते हैं, इसकी अनभिज्ञता देखकर मन क्रन्दन करता है । हिन्दुओंको धर्मशिक्षण प्राप्त न के कारण एवं योग्य साधनाके विषयमें मार्गदर्शन न मिलनेके कारण आज अधिकांश हिन्दुओंकी सूक्ष्म इन्द्रियां जागृत नहीं है, ऐसेमें सन्त या गुरु कौन इसके विषयमें भ्रमित होना स्वाभाविक भी है ।
सन्त कौन, इस विषयमें कुछ बातें जानना अति आवश्यक है जो निम्नलिखित हैं –
१. सन्तों और सिद्धोंमें भेद होता है, एक साधकको ४० प्रतिशत आध्यत्मिक स्तरसे ही कुछ विशिष्ट सिद्धियां प्रयास करनेपर प्राप्त हो सकती है; किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह साधक सन्तपदके अधिकारी हो गए । आज अज्ञानतावश अनेक लोग, किसी व्यक्तिकी सिद्धियोंसे प्रभावित होकर ढोंगी गुरुओंके जालमें फंस जाते हैं । ऐसे मार्गदर्शकोंके पास मात्र थोडी बहुत सिद्धियां इस जन्म या पूर्व जन्मके साधनाके कारण होती है । विशेषकर जो तन्त्रमार्गी होते हैं उनके पास तो ३५ % आध्यात्मिक स्तरपर भी कुछ विशिष्ट सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं । जैसे अभी जनवरी २०१८ में मैं इन्दौरमें एक अध्यात्मविदके पास ‘उपासना’के आश्रम हेतु भूमिके विषयमें कुछ जानकारी प्राप्त करने हेतु एक परिचितके कहनेपर गयी थी, मुझे ज्ञात नहीं था कि वे तान्त्रिक हैं, वे मुझे देखते ही मेरे विषयमें बोलने लगे और हमारे साथ गए साधक आश्चर्यचकित हो गए; किन्तु उनका अध्यात्मिक स्तर मात्र ४० % ही था । तन्त्र साधनामें ऐसी कुछ विशिष्ट सिद्धियां होती हैं जिससे व्यक्तिके भूत, भविष्यको सरलतासे जाना जा सकता है, मुझे ऐसे तान्त्रिकोंसे दूरी बनाए रखना ही अच्छा लगता है; अतः मैं पुनः उनके पास नहीं गई, जबकि उन्होंने मुझे अपने मार्गदर्शनमें साधना करनेके भी बातों ही बातोंमें संकेत दे दिए थे !
२. सन्तमें तीन पद होते हैं – गुरु, सद्गुरु एवं परात्पर गुरु । ७० % अध्यात्मिक स्तरके साधक, सन्तके गुरु पदपर विराजमन हो जाते हैं, आगे साधनामें मार्गक्रमण करनेपर वे जब ८० % आध्यात्मिक स्तर साध्य करते हैं तो वे सन्तके सद्गुरु पदके अधिकारी होते हैं और जब वे ९० % से अधिक आध्यात्मिक स्तर साध्य करते हैं तो वे सन्तके ‘परात्पर’ पदके अधिकारी होते हैं । सामान्यत: मात्र १० % सन्त ही गुरु बननेके अधिकारी होते हैं अर्थात गुरु बनने हेतु कुछ विशिष्ट गुणोंका होना एवं सन्तका समष्टि उत्तरदायित्त्व सम्भालनेकी उत्कण्ठा होना आवश्यक होता है । आध्यात्मिक स्तरका सिद्धान्त हमारे श्रीगुरुद्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसकी प्रतीति मैंने अपनी सूक्ष्म इन्द्रियोंकी सहायतासे पिछले अनेक वर्षोंमें ली है और ये तथ्य उसीके आधारपर बाताया गया है ।
३. उपर्युक्त तत्त्व अनुसार सभी सन्त, गुरु नहीं होते हैं किन्तु सभी गुरु, सन्त होते हैं । सन्त दो प्रकारके होते हैं – व्यष्टि सन्त एवं समष्टि सन्त । गुरु पद एक कठिन पद होता है और कई बार व्यष्टि सन्त इस पदको स्वीकार करने को इच्छुक नहीं होते और वे आत्मानन्दमें रत रहना श्रेष्ठ समझते हैं । ऐसे व्यष्टि सन्तोके मात्र अस्तित्वसे ब्रह्माण्डकी सात्त्विकता बनी रहती  है । ऐसे ही कुछ सन्त भक्तोंके अध्यात्मिक कष्ट दूर तो करते हैं; परन्तु किसीको शिष्य स्वीकार कर उसे मोक्ष तक ले जानेको इच्छुक नहीं होते; क्योंकि ऐसे सन्तोंको ज्ञात होता है, मात्र शिष्य बनानेसे कार्य समाप्त नहीं होता, शिष्य जब तक मोक्षको प्राप्त नहीं होता, तब तक वह उत्तरदायित्व गुरुका होता है; अतः कई गुरु शिष्य बनाते समय बहुत सतर्क रहते हैं और योग्य पात्रको ही शिष्यके रूपमें स्वीकार करते हैं । समष्टिको योग्य मार्गदर्शन करनेवाले एवं गुरु पद स्वीकार करनेके वाले समष्टि सन्तोंकी, व्यष्टि सन्तोंकी अपेक्षा मोक्षकी प्रगति द्रुत गतिसे होती है । ईश्वर प्रत्येक सन्तको भी गुरु पदके लिए नहीं चुनते, जिनमें दूसरोंको सिखानेकी विशेष क्षमता हो, मां समान मातृत्व, क्षमाशीलता और प्रेम हो, उसे ही ‘गुरु’ पदपर आसीन करते हैं ।
४. प्रत्येक गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्ति सन्त नहीं होता एवं उसीप्रकार सामान्य वस्त्रवाले गृहस्थ भी सन्त हो सकते हैं । सन्तोंका अभिज्ञान (पहचान) करना अत्यन्त कठिन होता है । सन्तोंका आध्यात्मिक स्तर जितना अधिक होता है, उनका अभिज्ञान करना उतना ही कठिन होता है, कुछ सन्त तो सहज अवस्थाके सन्त होते हैं, वे इतने सहज होते हैं कि आप उनके साथ वर्षों रह लें तब भी यदि ‘वे न चाहें’ तो आप उनका अभिज्ञान कभी नहीं कर सकते हैं ।
५. सन्तोंका अभिज्ञान करने हेतु हमारी सूक्ष्म इन्द्रियां कार्यरत होनी चाहिए एवं यह मात्र साधनाके ठोस आधारसे एवं ईश्वरेच्छासे ही सम्भव है ।
६. वर्तमान कालमें ९९ % सन्त जो गुरु पदके अधिकारी बनकर, समाजका मार्गदर्शन कर रहे हैं, वे वस्तुत: गुरु पदके अधिकारी नहीं है । जैसे बालवाडीमें शिक्षक होते हैं वैसे ही समाजका आध्यात्मिक स्तर अत्यधिक गिर जानेके कारण सामान्यत: ३५ से ५० % आध्यात्मिक स्तर वाले मार्गदर्शकोंकी आज समाजमें भरमार है; क्योंकि अध्यात्मशास्त्रके अनुसार हमें हमारी साधनाकी उत्कण्ठा, ईश्वरप्राप्ति हेतु योग्य प्रयास, भाव एवं आध्यात्मिक स्तरके अनुरूप ही गुरु मिलते हैं । जैसे एक व्यक्तिका अध्यात्मिक स्तर ३० प्रतिशत है और वह मायाके वस्तुओंको पानेकी आकांक्षा रखता हो तो उसे ४० से ५० % आध्यात्मिक स्तरके मार्गदर्शक मिल सकते हैं ।
७. सामान्यत: जिज्ञासु या साधक, स्वयंके आध्यात्मिक स्तरसे अधिकतम २० % अधिक आध्यात्मिक स्तरवाले अध्यात्मविदसे ही प्राभावित हो पाता है । जैसे एक साधकका अध्यात्मिक स्तर यदि ४० % हो तो वह ९० % वाले सन्तके स्पंदनोंको ग्रहण नहीं कर पाता है और ६० से ७० % प्रतिशतवाले अध्यात्मिदसे अधिक प्रभावित हो जाता है । किन्तु यदि उसका संचित बहुत अच्छा हो और उसकी बुद्धि सात्त्विक हो और अध्यात्मशास्त्रका गहन अभ्यासक हो और साधनारत हो तो वह ८० प्रतिशतसे अधिक स्तर वाले अध्यात्मविदोंद्वारा प्रक्षेपित स्पंदनोंको ग्रहण कर सकता है; किन्तु उस हेतु ईश्वरकी विशेष कृपा चाहिए होती है । इसी तत्त्वके कारण उच्च आध्यात्मिक स्तरके अध्यात्मविद अपने शिष्योंको समाजमें धर्मप्रसारके लिए भेजते हैं जिससे समाज उनसे सरलतासे जुड सके ।
८. अचूक आध्यात्मिक स्तर मात्र सन्त ही बता सकते हैं जो इस आध्यात्मिक स्तरवाले आध्यात्मिक तत्त्वसे परिचित हों ।
९. जैसे बालवाडीके शिक्षकका अपना महत्त्व होता है उसीप्रकार यदि किसी साधकको साधनामें मार्गक्रमण करना हो तो ईश्वर एक ४० % आध्यात्मिक स्तरवाले मार्गदर्शकके माध्यमसे भी उसे अनुभूति देकर, उसकी श्रद्धा गुरुतत्त्वके प्रति बढा सकते हैं, किन्तु ४० % आध्यात्मिक स्तरवाला व्यक्ति स्वयंको ८० % स्तरवाला समझने लगे तो समाजके लिए वह विनाशकारी होता है और आज यही हो रहा है !
१०. हिन्दू राष्ट्रकी इसलिए भी प्रतीक्षा कर रही हूं; क्योंकि ये सर्व तथ्य समाजको व्यापक स्तरपर सिखाए जाएंगे और परिणामस्वरूप सभी भ्रम सन्तों और गुरुओंसे सम्बन्धित आगामी कालमें दूर हो जाएंगे । – तनुजा ठाकुर  



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