संतोंका स्थूल अनुकरण नहीं करना चाहिए


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अध्यात्मशास्त्रका अभ्यास नहीं होनेके कारण कुछ साधक अपने गुरुका या संतका आधार लेकर उनके बाह्य आचरणका अनुकरण करते हैं, परंतु ऐसा करना अयोग्य है | संतोंका मन ईश्वरसे एकरूप होता है; अतः उनके बाह्य आचरण उनके साधना को प्रभावित नहीं करते |
वर्ष २००३ में एक बार हम कुछ साधकको एक संतका सानिध्य प्राप्त हुआ, हम सब एक छोटेसे कमरेमें एक घंटे बैठे थे और वे सहज ही कुछ बातें कर रहे थे और साथ ही वे साधनाके कुछ दृष्टिकोण भी बता रहे थे | उस एक घंटेके मध्य उन्होंने तीन बार बीडी पी, मुझे बीडीकी गंध सहन नहीं होती, परंतु आश्चर्य हममें से किसी भी साधकको उनकेद्वारा पी गई बीडीका तनिक भी गंध नहीं लगी और सबसे आश्चर्यकी बात थी कि इसका भान हमें उनके जानेके पश्चात हुआ ! संत कोई भी कृति क्यों करते हैं, इसका उद्देश्य क्या होता है, यह सामान्य बुद्धिद्वारा समीक्षा कर उसे समझना अनेक बार कठिन होता है |
संतोंने किस प्रकार साधनाकी जिससे वे संत बने, इसकी अपेक्षा संतकी स्थूल कृतिका अनुकरण करना पूर्णत: अनुचित है | इस संदर्भमें एक छोटी सी कथा अत्यंत प्रेरणादायी है | एक बार एक शिष्यको अपने गुरुजीकी स्थूल कृतिका अनुकरण करनेकी आदत थी, गुरुजीने कई बार उसे उसकी चूक ध्यान दिलाई परंतु शिष्यकी इस स्वभावमें कोई सुधार नहीं दिखा तब गुरुजीने उसे प्रत्यक्षमें सीख देनेकी सोची | एक दिन गुरुजी और शिष्य दोनों हरिद्वारमें गंगा स्नान कर रहे थे, स्नानके दौरान एक बार गुरुजीकी अंजुलीमें चार छोटी मछलियां आ गईं, शिष्यने देखा, गुरुजी मछलियोंको अंजुलीके जलके साथ निगल गए | शिष्यने अंजुलीमें जल उठाया तो गुरुलीला अनुसार उसके अंजुलीमें भी चार छोटी मछलियां आ गईं, शिष्यने गुरुजीका अनुकरण करते हुए उन्हें निगल गया | पंद्रह दिनके पश्चात दोनों गुरु शिष्य वाराणसीके गंगामें स्नान कर रहे थे गुरुजीने शिष्य को दिखाते हुए डकार लगाई और चार मछलियां थोड़ी बडी आकारमें निकल आयीं और वह भी जीवित, गुरुजी ने कहा इनके परिवारवाले इनकी राह देख रहे थे अतः इन्हें यहां छोड़ देता हूं और संकेत देकर कहा “तुम भी अपनी मछलियां पेटसे निकालो”, शिष्यने संकोचवश कहा “प्रयत्न करता हूं पर मछलियां नहीं निकली, शिष्यने कहा, शायद वे पच गईं” और अपनी इस कृतिपर लज्जित हुआ और भविष्यमें गुरुजीकी स्थूल कृतियोंका कभी भी अनुकरण न करनेका प्रण ले लिया |



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