संन्यास आश्रम अन्तिम आश्रम होनेका कारण !


अगस्त १९९८ की बात है । मैं कुछ माह पहले ही सनातन संस्थाकी पूर्णकालिक साधक बन हरियाणाके फरीदाबादमें सनातनके सेवाकेन्द्रमें आई थी ! उस समय हम कुछ साधक मध्याह्नका (दोपहरका) प्रसाद किसी गृहस्थ साधकके घर लिया करते थे । मेरी निरीक्षण क्षमता अच्छी है तो मैंने पाया कि जिस सुघडतासे स्त्रियोंको अपने घरको सम्भालना चाहिए, वैसे वे नहीं करती थीं ! उनके घरमें बैठक कक्षसे अतिरिक्त शेष कक्ष अस्वच्छ या अव्यवस्थित रहते थे । मात्र भोजनमें दाल-रोटी बना दी और आस-पासकी स्त्रियोंको एकत्रितकर या तो बातें करती थीं या स्वेटर बुनती थीं ! यह सब देखकर मेरे मनमें प्रतिक्रिया आती थी कि कमसे कम घरको तो वे व्यवस्थित रखा करें ! एक बार मैं अपनी एक ज्येष्ठ साधिकासे पूछ रही थी कि दीदी मैंने तो गृहस्थी नहीं सम्भाली है तो भी मुझे वह सब समझमें आता है; किन्तु २५ वर्षसे गृहस्थी सम्भालनेवाली स्त्रियोंको समझमें नहीं आता है, ऐसा क्यों ? तो उन्होंने बहुत अच्छा उत्तर दिया था । उन्होंने कहा, जब हम गृहस्थीके सभी गुणोंसे परिपूर्ण हो जाते हैं तो ही गुरु हमें संन्यास देते हैं । आपने भी किसी जन्मसे यह सब सीखा होगा; इसलिए २७ वर्षकी आयुमें आपको गुरुने पूर्ण समय साधना करनेकी अनुमति दी है ! तो मुझे समझमें आया कि संन्यास आश्रमको अन्तिम आश्रम क्यों माना गया है ? क्यों एक संन्यासीका आश्रम चाहे वह पुरुषका हो या स्त्रीका हो, उसमें आपको स्वच्छता, पवित्रता, व्यवस्थितताके साथ ही प्रेम, अनुशासन एवं धर्मपालन सब कुछ क्यों दिखाई देता है ! हमारे यहांकी आश्रम व्यवस्थाकी संरचनाकी कल्पना कितनी वैज्ञानिक है ?, यह ज्ञात होता है । – (पू.) तनुजा ठाकुर


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