सेवाका महत्त्व


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पांडवोंका वनवास काल समाप्त हो गया था । दुर्योधनने युद्धके बिना उन्हें पांच गांव भी देना स्वीकार नहीं किया । युद्ध अनिवार्य समझ दोनों पक्षोंने अपने-अपने दूत भेजे । मद्रराज शल्य यह समाचार सुन अपने महारथी पुत्रोंके साथ एक अक्षोहिणी सेना लेकर पांडवों के पास चले ।

शल्य नकुल व सहदेवके मामा थे । पांडवोंको भरोसा था कि शल्य उनके पक्षमें युद्धमें उपस्थित रहेंगे, किन्तु दुर्योधनको शल्यके आनेका समाचार मिलते ही उसने मार्गमें जहां-जहां सेनाके विश्रामके उपयुक्त स्थान थे, जल तथा पशुओंके लिए चारेकी सुविधा थी, वहां-वहां निपुण कर्मचारियोंको भेजकर सभा भवन एवं निवास स्थान बनवाए । सेवामें चतुर सेवक नियुक्त किए । कुएं बनवाए, भोजनादिकी श्रेष्ठ व्यवस्था करवाई । मद्रराज शल्य समझे कि यह सारी व्यवस्था युधिष्ठिरने की है ।

हस्तिनापुरके निकट पहुंचनेपर उन्हें अत्यंत सुंदर विश्राम स्थल मिला । उन्होंने कर्मचारियोंसे कहा- युधिष्ठिरके जिन कर्मचारियोंने मेरी सेवाकी है, मैं उन्हें पुरस्कृत करना चाहता हूं । तब दुर्योधनने शल्यको बताया कि यह व्यवस्था मेरी है । मुझे सेवाका अवसर मिला, यह मेरा सौभाग्य है ।

शल्यने प्रसन्न हो उससे वरदान मांगने को कहा । उसने मद्रराजको सेना सहित युद्धमें उसका साथ देनेका वर मांगा, जो शल्यने उसे दिया । यदि शल्य पांडवोंके पक्षमें युद्ध करते तो दोनों दलोंकी सैन्य संख्यामें समानता रहती, किंतु उनके कौरव पक्षमें जानेसे कौरवोंके पास दो अक्षोहिणी सेना अधिक हो गई । वस्तुत: सेवा भावसे शत्रु भी मित्र हो जाते हैं । व्यक्तिकी प्रतिकूलताएं अनुकूलताओंमें परिवर्तित हो जाती हैं और तब जटिल कार्य भी सुगम हो जाते हैं ।



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