यू-ट्यूबकी हमारी 'वैदिक उपासना' वाहिनीपर (चैनलपर) सिद्धार्थ नामक एक व्यक्तिने एक प्रश्न पूछा है जिसके उत्तरसे समष्टिको भी लाभ होगा; अतः उसका उत्तर यहां प्रकाशित कर रही हूं, प्रश्न इस प्रकार है -
प्रथम कर्मकी उत्पति कैसै हुई ?


उत्तर : जब जीवकी ब्रह्मसे उत्पत्ति हुई तो जीव, ब्रह्म समान ‘अहम् ब्रह्म अस्मि’के भावमें ही रहता था; अतः कर्मरत होनेपर भी उसके सर्व कर्म ‘अकर्म’ होते थे । जिस कर्मसे कर्मफलकी उत्पत्ति नहीं होती उसे ‘अकर्म कर्म’ कहते हैं । ब्रह्मसे उत्पत्तिके कारण जीवका कोई संचित भी नहीं था । संचित अर्थात पिछले जन्मोंके कुल कर्मफल, जिन्हें जीव भिन्न जन्मोंमें भोगता है ।
कालका प्रवाह हुआ और जीवमें अहंकी निर्मिति होने लगी । अहंकी निर्मितिके साथ ही जीवके कर्म निर्माण होने लगे । ध्यान रहे, जब जीवकी ब्रह्मसे एकरूपता होती है, तब जीवात्मासे कर्मकी निर्मिति नहीं होती, शेष समय इस सृष्टिके कर्मफलके सिद्धान्त अनुसार प्रत्येक क्षण जीवसे कर्मफल निर्माण होते रहते हैं या पूर्व जन्मोंके कर्म नष्ट होते रहते हैं । नूतन निर्माण होनेवाले कुछ फल वह इसी जन्ममें भोग लेता है एवं शेष कर्म संचितमें जाकर एकत्रित हो जाते हैं । इस प्रकार जीव इस कर्मके दुष्चक्रसे नहीं निकल पाता है और वह जन्म-जन्मान्तर इसी कालचक्रमें घूमता रहता है एवं जो इस दुष्चक्रसे मुक्त हो चुके होते हैं, उन्हें सन्त कहते हैं । जिस प्रक्रियासे कर्मफलकी निर्मिति बन्द हो जाती है एवं संचितके भोग जलते हैं, उसे साधना कहते हैं और वैदिक सनातन धर्ममें साधनाके अनेक योगमार्ग हैं । जीव अपनी प्रवृत्ति अनुरूप किसी भी योगमार्गसे अपने संचितको नष्ट कर नूतन कर्मफल बनानेकी इस प्रक्रियासे निकल सकता है । मात्र सद्गुरु ही बता सकते हैं कि जीवके लिए कौन सा योगमार्ग उसकी शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति एवं संचितको नष्ट करने हेतु योग्य होता है, यही गुरुकी महत्ता है ।



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