शंका समाधान


आये दिन हमारे पास कोई न कोई दूरभाष या पत्र या सन्देश आते रहते हैं, जिनका आशय होता है कि आप सनातन धर्मका प्रसार करती हैं; अतः आप आंग्ल भाषामें (अंग्रेजीमें) कुछ भी न लिखें और न ही बोलें, यह आपको शोभा नहीं देता है ।
मुझे आंग्ल भाषामें (अंग्रेजीमें) बोलना अच्छा नहीं लगता है और न ही मैं आंग्ल भाषामें लिखती हूं, आप मेरे जो भी लेख आंग्ल भाषामें पढते हैं, वे किसी साधकद्वारा भाषान्तरित होते हैं; किन्तु जो लोग धर्म सीखना चाहते हैं और परिस्थितिवश या अन्य किसी कारणवश उन्हें हिंदी नहीं आती है तो क्या उन्हें सनातन धर्मके तत्त्व सीखनेका अधिकार नहीं है ? यदि आज कुछ ओछी मानसिकतावाले राजनेताओंके कारण, दक्षिण भारतके या अन्य राज्यके हिन्दू धर्मबंधुओंको हिंदी भाषा बोलना या पढना नहीं आता है तो उसमें उनका क्या दोष है ?, क्या ऐसे धर्मबंधुओंको धर्म सीखनेका अधिकार नहीं है ? यदि विदेशमें जाकर कुछ भारतीय कुछ दशक या शताब्दी पूर्व बस गए और उन्हें हिंदी पढना नहीं आता है तो क्या उन्हें धर्म सीखनेका अधिकार नहीं है ? क्या वे अहिन्दु-विदेशी जो भारतीय दर्शनको सीखने हेतु इच्छुक हैं, उन्हें आंग्ल भाषामें सनातन धर्मकी शिक्षा देकर अपने मूल धर्मकी ओर प्रवृत्त करना अनुचित है ?
गुरुकृपासे ‘उपासना’के कार्यके आरम्भसे ही विश्वके अनेक देशोंके लोग जुडे रहे हैं, मुझे आंग्ल भाषा बहुत अच्छी नहीं आती है; किन्तु यदि मेरी आंग्ल भाषासे कुछ विदेशियोंका या कुछ धर्मबन्धुओंका, जिन्हें हिंदी नहीं आती है, उनका कल्याण हो सकता है, तो इसमें अनुचित ही क्या है ?
धर्मकार्य करते समय अपनी संकुचित मनोवृत्तिसे उठकर सम्पूर्ण मानव जातिका विचार करनेसे ईश्वरीय कृपा सम्पादित होती है और हमारे लिए सम्पूर्ण विश्व एक कुटुम्ब है और अपने कुटुम्बका विचारकर उस हेतु जो भी कुछ ईश्वरने मुझे दिया है, उसे अर्पण करना, यही हमारी साधना है और यही हमारी संस्कृतिकी सीख है ।
आज दक्षिण भारतके अनेक लोग ‘धर्मधारा’ हिंदी सत्संग सुनते हैं, वैसे ही विश्वके अनेक देशोंके लोग, जिन्हें ठीकसे हिंदी नहीं आती है, वे भी हिंदी सत्संग सुनते हैं, हमारी हिंदी संस्कृतनिष्ठ है, क्लिष्ट है, यह उत्तर भारतके लोगोंको ही समझनेमें कठिनाई होती है, यह सब मुझे ज्ञात है, तब भी हमारे ऐसे धर्मबंधुओंने जिन्हें ठीकसे हिंदी नहीं आती है, उन्होंने मुझसे कभी कोई परिवाद (शिकायत) नहीं की है; उनके इस प्रेम, जिज्ञासा और सम्मान हेतु हम यदि उन्हें उस भाषामें कुछ समझा पाएं, जिसमें वे चाहते हैं, तो यह अधर्म और अनुचित कैसे हो सकता है ? धर्मके प्रति अभिमान होना आवश्यक और अच्छा होता है; किन्तु कट्टरता कहांपर होनी चाहिए और कहांपर नहीं ?, इसे विवेकसे निर्धारित करना पडता है, अन्यथा कट्टरता धर्मान्धता बन जाती है और इससे समाजकी हानि होती है । – तनुजा ठाकुर



Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution