नाम जीहं जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी ॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा ॥1॥ – रामचरितमानस
अर्थ : ब्रह्माके बनाए हुए इस प्रपंचसे (दृश्य जगत) भलीभांति छूटे हुए वैराग्यवान, मुक्त योगी पुरुष इस नामको (रामके नामको) ही जीभसे जपते हुए (तत्वज्ञान रूपी दिनमें) जागते हैं और नाम तथा रूपसे रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुखका अनुभव करते हैं ॥1॥
भावार्थ : इस चौपाईमें संत शिरोमणि तुलसीदासजी भगवानके नामकी गूढ महिमाको बता रहे हैं | प्रभुके नामको जपनेसे साधक मुक्त हो जाता है और ऐसे मुक्त साधक, साधनाके उत्तरोत्तर कालमें नामसे एकरूप हो जाते हैं; परिणामस्वरूप निराकार ब्रह्मकी अनुभूति लेते हैं | अर्थात ईश्वरके सगुण रूपका नाम लेते-लेते साधक निर्गुण ब्रह्मकी ओर प्रवास करता है एवं अंतत: जागृत समाधिकी अनुभूति लेता है | अतएव नामसे सब कुछ प्राप्त होता है | जो ध्यानमार्गकी कठोर साधनासे (नेत्र बंदकर चित्तकी वृत्तियोंके निरोधसे) प्राप्त होता है, जो ज्ञानमार्गमें गूढ तत्त्वके सूक्ष्म चिंतनसे प्राप्त होता है, जो कर्मकाण्डके कठोर यज्ञ-यागसे प्राप्त होता है, वह भक्तिमार्गसे सहज ही प्राप्त हो जाता है, यही नामकी महिमा है | यद्यपि इस चौपाईमें संत तुलसीदासने भगवान श्रीरामके नामकी महिमा बताई है; किन्तु यह सिद्धांत ईश्वरके सभी नामोंके साथ लागू होता है; अतः नाम जपें |
कुछ लोगोंको लगता है कि यह नियम मात्र रामनामके लिए लागू होता है; किन्तु ऐसा है नहीं, दस अपराधविरहित नामजपके अनुसार, ईश्वरके भिन्न नामोंमें भेद करनेको अपराध कहा गया है ! – तनुजा ठाकुर
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