हमारे श्रीगुरुद्वारा प्रतिपादित स्तरानुसार साधनाकी प्रचीति देनेवला एक और प्रसंग !


दिनांक 29 जनवरी 2013 के दिन  महाकुंभमें एक सुप्रसिद्ध संतसे आशीर्वाद लेने गयी, उन्हें देखते ही समझमें आ गया कि वे एक उन्नत हैं, संत नहीं (उन्नतों का आध्यात्मिक स्तर 50 से 69% के मध्य होता है  और संत का आध्यात्मिक स्तर 70% से अधिक होता है ) | मैंने सूक्ष्मसे उनका आध्यात्मिक स्तर निकाला तो पता चला कि उनका स्तर 60% है | बात ही बातमें उन्होंने  “राजनीतिमें मत जाना, न ही उसमें उलझना और न ही उसके विषयमें बोलना ” | उनके इस वाक्यने उनके आध्यात्मिक स्तरकी पुष्टि कर दी |

जब तक धर्मसत्ताका राजसत्तापर अंकुश नहीं रहता वह अनियंत्रित और दिशाहीन रहता है – यह हमारा धर्मशास्त्र कहता है | और प्रत्येक संतका यह मूल कर्तव्य है कि समाज व्यवस्था सुवयवस्थित रहे इस हेतु वे  उसमें न भी पडे तब भी समाजको योग्य मार्गदर्शन अवश्य दें | जब तक हमारे देशमें ब्राह्मण वर्णकी (जाति नहीं ) दिशामें क्षत्रिय वर्णके (जाति नहीं) साधक राज्य कर रहे थे तब तक यह देश सोने की चिडिया कहलाती थी; परंतु कालांतर धर्मका ह्रास हुआ और वर्णव्यवस्था बिखर गयी और उसी समयसे इस देशका पतन आरंभ हो गया | जिस अध्यात्मविदको सनातन धर्मकी यह मौलिक सिद्धान्त पता नहीं वे संत कैसे हो सकते हैं ? अध्यात्मविदको यदि पूर्णत्वकी प्राप्ति न हुई हो और  यदि पूर्णत्व प्राप्त सद्गुरुके शरणमें रहकर साधना नहीं करते तो उनमें यह त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण सहज ही झलकती है |

इन संतके भी कोई गुरु नहीं है और एक अध्यात्मविदके मार्गदर्शनमें साधना कर रहे थे और उनसे मतभेद हो जानेपर उन्होंने उनके मार्गदर्शनमें साधना छोड दी | ध्यान रहे सद्गुरुसे मतभेद हो नहीं सकता यदि होता है तो दोनोंमें से किसी एकमें कोई कमी है | उन्हें लगा उनके सद्गुरुने उनके साथ न्याय नहीं किया !( सद्गुरु अपने शिष्यके साथ अन्याय कभी कर ही नहीं सकते !!!  )

कृपया उन अध्यात्मविदका नाम न पूछें मैं यह सब किसीका उपहास करनेके लिए नहीं लिख रही हूं अपितु समाज एवं अध्यात्मविदोंके दृष्टिकोणको योग्य दिशा मिले इसलिए लिख रही हूं अतः उनका नाम पूछकर मेरा समय व्यर्थ न करें यह नम्र विनती है !



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