whatsappके माध्यमसे श्रव्य धर्मधारा सत्संगके प्रसारण करते समय अनिष्ट शक्तियोंद्वारा निर्माणकी गयी कष्टोंका एक संक्षिप्त ब्यौरा


व्हाट्सएपके माध्यमसे धर्मधारा सत्संगके प्रसारणके दो वर्ष हुए पूर्ण
ख्रिस्ताब्द २०१५ की गुरुपूर्णिमाके दिवस धर्मधारा सत्संग प्रारम्भ हुआ था और इसप्रकार इस सत्संग श्रृंखलाके दो वर्ष इस गुरुपूर्णिमामें पूर्ण हो जाएंगे । सीमित संसाधनों एवं सीमित साधक संख्या होनेपर भी इस सत्संगको हम दो वर्ष नियमित प्रसारित कर सके, इस हेतु हम भगवान शिव एवं श्रीगुरुके श्रीचरणोंमें अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं; क्योंकि यह सब उनकी कृपाके कारण ही सम्भव हो पाया है ।
इस उपक्रमको मिला श्रीगुरुका आशीर्वाद
जून २०१६ में श्रीगुरुसे भेंट करनेपर उन्हें ‘धर्मधारा सत्संग’के विषयमें जब सब बताया तो वे इतने प्रसन्न हुए कि इस सत्संगको प्रसारित करनेमें जो हमने उद्यम किया एवं जो स्थूल और सूक्ष्म स्तरोंपर कष्ट सहे, वह सब जैसे सार्थक हो गया । उन्होंने इस उपक्रमको अपना आशीर्वाद ही नहीं दिया; अपितु हम इस सत्संग श्रृंखलाकी जो कुछ ध्वनिचक्रिकाएं अर्थात् सीडी साथ ले गए थे, उसके सभी विषय इतने रुचिकर लगे कि उन्होंने सभी विषयोंके आलेख मंगवाए हैं और उन्होंने कहा है कि वे उसे मराठी दैनिक सनातन प्रभातमें छापेगें। ऐसे हैं हमारे श्रीगुरु, हमारे छोटे-छोटे प्रयासोंको वे इसप्रकार प्रोत्साहन देते हैं । जब हमने उन्हें बताया कि इस माध्यमसे प्रतिदिवस अनेक देशोंके सहस्रों लोग सत्संग सुनते हैं और उसी श्रव्य सत्संगको हम चित्रपटके रूपमें यू-ट्यूबपर भी डालते हैं और विश्वके ५० से अधिक देशोंके लोग उसे सुनते हैं तो वे और भी आनन्दित हो गए । उसके पश्चात् जब हमने बताया कि किसप्रकार व्हाट्सएपके माध्यमसे धर्मधारा श्रव्य सत्संग आरम्भ करनेके पश्चात् हमारे कार्यको और हमें कष्ट हो रहे हैं तो उन्होंने जैसे मेरी वेदना त्वरित भांप ली और आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘आगे उपासनाका कार्य बहुत बढ जाएगा और यह सब कष्ट तो अनिष्ट शक्तियोंद्वारा आपके कार्यको प्रमाणपत्र (सर्टिफिकेट) है ।’’ उन्होंने इस उपक्रममें निरन्तरता बनाए रखने हेतु आज्ञा दी । इसप्रकार २०१५ की गुरु पूर्णिमाके दिवससे जो यह सेवा आरम्भ की थी, उसे उन्होंने स्वीकार कर हमें कृतार्थ किया है और उनकी इस विशेष कृपा हेतु पुनः हम मन:पूर्वक उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और उनसे प्रार्थना करते है कि वे इसे निरन्तर क्रियान्वित करने हेतु, आवश्यक ज्ञान, शक्ति और भक्ति हमें प्रदान करते रहें !
धर्मधारा सत्संगके आरम्भ होनेका कारण
धर्मधारा सत्संग श्रृंखला कैसे आरम्भ हुई ? यह आप सबको बता दें । सूक्ष्म जगतकी आसुरी शक्तियोंके पिछले २७ वर्षोंके निरन्तर आक्रमणने मेरी शरीरकी स्थिति अत्यन्त दयनीय कर दी है । ऐसेमें सर्वत्र भ्रमण कर धर्मप्रसार करना, मेरे लिए दिन-प्रति-दिन कठिन होता जा रहा था; किन्तु समाजको धर्मशिक्षण देना, यह मेरे गुरुकी आज्ञा और ईश्वरकी इच्छा थी; अतः मैं क्या करूं यह समझ नहीं पा रही थी; क्योंकि ‘फेसबुक’ने ख्रिस्ताब्द २०१२ से ही मेरे हिन्दुत्ववादी लेखनके कारण मुझे लगभग प्रतिबन्धित ही कर दिया है; इसलिए मैंने वह सेवा पिछले चार वर्षोंसे साधकोंको दे दी है; क्योंकि जिसमें परिणाम नहीं निकले, उसमें समय लगाना व्यर्थ है । तभी ईश्वरने इस मूढकी चिन्ता दूर करनेका एक नियोजन किया । ख्रिस्ताब्द २०१५ में जब मैं धर्मयात्राके मध्य यूरोपमें थी वहांके हिन्दुओंकी स्थिति देख लगा कि यदि समय रहते उन्हें धर्मशिक्षण नहीं दिया गया तो वे सब नाममात्र हिन्दूसे या तो नास्तिक या अहिन्दू बन जाएंगे । यूरोपके ९९ प्रतिशत मन्दिरोंमें कोई धर्मशिक्षण देनेका विधान नहीं दिखा । वहांके मन्दिरोंमें माताका जागरण, माताकी चौकी या भजन कीर्तन या भण्डारा इत्यादि तक ही हिन्दुओंका धर्मपालन और साधना सीमित देख, मन क्रन्दन करने लगा । कुछ हिन्दुओंने मुझसे कहा, ‘‘हम क्या करें ? हमें कोई धर्म सिखानेवाला है ही नहीं; अतः हमें जो आता है, हम वह करते हैं ।’’ यह सब सुनकर मैं सोचने लगी कि इन्हें धर्मशिक्षण कैसे दिया जाए; क्योंकि विदेशमें रज-तमका साम्राज्य है, ऐसेमें प्रत्येक वर्ष वहां जाना मेरे लिए अत्यधिक कठिन है । मेरा मन विदेश जानेको अंशमात्र भी कभी तत्पर नहीं रहा है; किन्तु वहां कुछ अच्छे साधक मिले हैं, जो अपने प्रारब्धवश वहां बस चुके हैं और उनसे मिलनेके पश्चात् उन्हें दिशाहीन नहीं छोड सकती थी । उनकी साधना निरन्तर हो, इस हेतु तो मुझे कुछ न कुछ करना ही था । मैं सोचने लगी कि ऐसा क्या करूं कि उन्हें नियमित सत्संग मिले । तभी मुझे जैसे अंत:प्रेरणा हुई कि यहां सभी लोग व्हाट्सएपका इतना अधिक उपयोग करते हैं तो क्यों न मैं निःशुल्क और सहज उपलब्ध साधनको धर्मशिक्षणका एक माध्यम बनाऊं और मैंने गुरुपूर्णिमा २०१५ के दिवससे यूरोपमें रहनेवाले साधकोंका एक छोटासा गुट बनाकर उसमें धर्मसे सम्बन्धित सन्देश ध्वनिमुद्रित कर भेज दिया और मुझे उसका जो प्रतिसाद मिला वह इतना उत्साहवर्धक था कि मैं आश्चर्यचकित हो गई । अनेक साधकोंको सत्संगका विषय बहुत अच्छा लगा एवं कुछ साधकोंने उसे अपने मित्रों और परिजनोंको बताया तो कुछने उसे मन्दिरमें चलभाषके (मोबाइलके) स्पीकरमें ध्वनिप्रक्षेपक यन्त्र (माइक) लगाकर, उसे वहां उपस्थित सभी भक्तोंको सुनाया । मैं इस प्रतिसादकी कल्पना भी नहीं कर सकती थी; अतः आरम्भमें धर्मधारा सत्संग जिसे साप्ताहिक रखनेका निर्णय लिया गया था, उसे प्रतिदिनके सत्संगमें परिवर्तित कर दिया गया । तत्पश्चात् मुझे विचार आया कि यूरोपके हिन्दू समान भारतके अधिकांश हिन्दुओंको भी धर्मका ज्ञान कहां है ?; इसीलिए हमने इस सत्संगको एक सार्वजनिक एवं विेशव्यापी उपक्रम बनानेका निर्णय लिया और गुरुकृपासे आज यह उपक्रम विश्वव्यापी हो चुका है ।

उपक्रमको आरम्भ करनेके पश्चात् हुए अनिष्ट शक्तियोंद्वारा स्थूल एवं सूक्ष्म स्तरके कष्ट
१.अनिष्ट शक्तियोंद्वारा साधकोंकी साधनामें एवं मेरे प्रति विकल्प निर्माण करना

इस उपक्रमको नियमित प्रसारित करनेका निर्णय लेते ही उपासनाके कई क्रियाशील साधकोंके मनमें मेरे प्रति और साधनाके प्रति विकल्प आने लगे, कुछने अडचनोंका बहाना बनाकर साधना भी छोड दी और कुछने विकल्पके कारण सेवा छोड दी । आरम्भमें मैंने इस दृष्टिसे विचार ही नहीं किया कि इस उपक्रमसे अनिष्ट शक्तियोंको इतना क्रोध आएगा और वे इसप्रकार आक्रमण करेंगी; किन्तु जब एक-एक कर अनेक क्रियाशील साधकोंको भिन्न प्रकारकी शारीरिक, मानसिक, कौटुम्बिक अडचनें आने लगीं और वे साधना छोडने लगे तो मुझे ध्यान आया कि इस उपक्रमके आरम्भ होनेपर वे मात्र मुझे ही कष्ट नहीं दे रहे हैं; अपितु उपासनाके कार्यके निमित्त बने साधकोंको भी कष्ट दे रहे हैं तो मैंने सूक्ष्म स्तरपर उन्हें मात देने हेतु समष्टि जप आरम्भ किए और इससे लाभ हुआ । कुछ साधकोंने साधना और सेवा पुनः आरम्भ कर दी एवं धीरे-धीरे सब पुनः जुड गए ।

२. अनिष्ट शक्तियोंद्वारा मुझे दिए गए शारीरिक कष्ट
सत्संग ध्वनिमुद्रित करते समय भी वे मुझे भिन्न प्रकारसे कष्ट देते थे और आज भी देते हैं और प्रथम छ: मास तो सत्संगके प्रसारणके कुछ क्षण पश्चात् मैं भिन्न प्रकारके शारीरिक कष्टसे छटपटाने लगती थी । सतत् सूक्ष्म स्तरपर युद्ध होनेके कारण मुझे अत्यधिक ‘गर्मी’ लगती है और ध्वनिमुद्रणके समय तो छठे और सातवें पातालके मान्त्रिक अर्थात् बलाढ्य आसुरी शक्तियां सूक्ष्म रूपसे आक्रमण करती हैं, तब मेरा सूक्ष्म देह भी और प्रचण्ड प्रमाणमें उनके आक्रमणका प्रतिकार करने लगता है । ऐसेमें मुझमें तेज तत्त्वका प्रमाण जागृत हो जाता है जिस कारण और भी अधिक उष्णताका भान होता है, उसपर बिना पंखेके देहलीकी प्रचण्ड उष्णतामें एक घण्टेतक ध्वनिमुद्रण करना कितना कठिन है ? यह मात्र मेरे भगवानजी जानते हैं; क्योंकि यदि पंखा चलाएं तो उनकी ध्वनि भी आ जाती है और उसे संकलनके माध्यमसे हटानेमे मेरे स्वरकी जो मूल ध्वनि है, वह परिवर्तित हो जाती है; अतः अब एक ‘स्टूडियो’ बनाना आवश्यक हो गया है और हमारा आश्रम एक राजमार्गपर स्थित है जहां २४ घण्टे वाहनोंके ‘हॉर्न’की कर्कश ध्वनि आती रहती है एवं अनेक बार एक ही वाक्यको चार-चार बार बोलना पडता है या जबतक वह वाहनकी ध्वनि या कोलाहल (शोर) चला न जाए तबतक रुकना पडता है और सत्संग ध्वनिमुद्रित करनेके पश्चात् उस युद्धकी तीव्रतासे एवं उष्णतासे मैं स्वेदसे (पसीनेसे) नहा कर अत्यधिक थक चुकी होती हूं, और उसके पश्चात् उसी स्थितिमें उसका संकलन करना पडता है, यह नित्य होता है । इसप्रकार धर्मधारा सत्संगका प्रसारण मेरे लिए एक युद्ध होता है । सत्संगके ध्वनिमुद्रणके समय मुझे अत्यधिक अम्लपित्त हो जाता है या सूजन बढ जाती है या अनेक बार डकारें आती हैं । जबसे यह सत्संग आरम्भ किया है, मध्याह्नका (दोपहरका) भोजन सेवन किया ही नहीं जाता है, पेटमें काली शक्ति सवेरे ग्यारह बजेसे ही भरने लगती है और संध्या सात बजे, सत्संगके प्रसारणके पश्चात् ही मुझे थोडी भूख लगती है । अनेक बार सत्संगके प्रसारणके पश्चात् मुझे अनियन्त्रित नींद आने लगती है और मैं एकसे दो घण्टे बसुध होकर सो जाती हूं । यदि नींद नहीं आती है तो या तो नाकसे झर-झर पानी जाता है या सतत् छीकें आती हैं या शरीरमें सूजन बढ जाती है और नहीं तो अत्यधिक अम्लपित्त होता है । अर्थात् प्रतिदिन वात, पित्त या कफसे सम्बन्धित कभी भी बिना कारण तीव्र कष्ट होने लगता है; अतः यह समझमें नहीं आता कि क्या खाऊं ? ख्रिस्ताब्द २०१६ की दीपावलीके पश्चात् मुझे जो प्रतिश्याय (साइनस) हुआ है वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है । स्थिति इतनी विकट है कि कफको न्यून करने हेतु यदि उष्ण खाद्य पदार्थ या औषधि लूं तो पित्त बढ जाता है और पित्त शान्त करने हेतु कुछ ठण्डा लूं तो नाक बहने लगती है । कोई भी औषधि या अध्यात्मिक उपायका प्रभाव नहीं पड रहा है । सतत् सूक्षम आघातोंके कारण मेरे शरीरकी प्रतिरोधात्मक क्षमता इतनी घट गई है कि न उष्णता (गर्मी) सहन होती है और न ही शीत (सर्दी) । पिछले वर्ष दिसम्बरसे नूतन सत्संगका नियमित ध्वनिमुद्रण नहीं कर पा रही हूं; क्योंकि ध्वनिमुद्रणके समय अकस्मात् छींकें आनेसे नाक कफसे फंस जाती है और ध्वनिमुद्रित प्रतिमें नाकसे ध्वनि निकल रही हो, ऐसा लगता है; इसलिए अब लेखनके माध्यमसे प्रसार कर रही हूं एवं अधिकांशत: पूर्व ध्वनिमुद्रित सत्संगका प्रसारण कर रही हूं, ईश्वरीय कृपा ऐसी है कि श्रोता लेखोंको मनोयोगसे पढते हैं और आचरणमें ला रहे हैं एवं उसमें भी उत्स्फूर्त प्रतिसाद मिल रहा है ।
३. आश्रमके प्रसार उपकरणोंपर एवं वाहनोंपर हुए अनिष्ट आक्रमण
इस सत्संगके प्रसारित होनेवाले यन्त्रोंपर सतत् आघात होते रहे हैं और यह सब बुद्धि अगम्य है अर्थात् ऐसी अडचनोंका कोई यान्त्रिक कारण नहीं होता था । कभी-कभी एक ही सत्संगको दो-तीन बार ध्वनिमद्रित करना पडता है; क्योंकि ध्वनिमद्रित प्रति संरक्षित ही नहीं हो पाती है; किन्तु जब कोई अन्य साधक कुछ ध्वनिमद्रित करते हैं तो वह प्रति त्वरित संरक्षित हो जाती है तो कभी-कभी ध्वनिमद्रित प्रतिमें मेरी ध्वनिके स्थानपर किसी और की ध्वनिमें सत्संग ध्वनिमद्रित हो जाती है । मैंने यह सब संरक्षित कर रखा है जिससे भविष्यमें इसपर सूक्ष्म स्तरके शोध हो सकें । कभी-कभी संकलित प्रति संरक्षित नहीं हो पाती है और मुझे पुनः उसका संकलन(एडिटिंग) करना पडता है ।  फरवरी २०१६ में तो ध्वनिमुद्रण करनेवाले ‘सॉफ्टवेयर’पर ही आक्रमण हो गया और जब दूसरे ‘सॉफ्टवेयर’से सत्संग ध्वनिमुद्रित करने लगे तो वह भी ठीकसे नहीं हो पा रहा था । यह क्रम भी पन्द्रह दिवसोंतक चला ।
सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि आश्रमके वाहनोंको कुत्तोंने हानि पहुंचाना  आरम्भ कर दिया, आश्रमके चार पहिया वाहनके पिछले भागमें लगे रबरको कुत्ते चबा गए और दो पहिया जो एक भिन्न तल्लेपर रखा गया था उनके सीट कवरको भी कुत्तोंने नोचा था; किन्तु वहीं अन्य वाहन लगे रहते हैं, उनमें कुछ भी नहीं हुआ । – तनुजा ठाकुर (१३.६.२०१७)



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