सूक्ष्म सत्ताकी शक्तिसे इसप्रकार हुआ मेरा प्रथम साक्षात्कार


सूक्ष्म सत्ताकी शक्तिसे इसप्रकार हुआ मेरा प्रथम साक्षात्कार
ईश्वर आज्ञा अनुरूप सूक्ष्म जगतसे सम्बन्धित लेख श्रृंखलाका शुभारम्भ करने जा रही हूं । मैं अकर्ता बनकर, इसे लिख सकूं एवं ईश्वरको इस माध्यमसे समाजको जो भी सिखाना हो वे वैसे ही वे  लिखवाकर ले लें, यह इस तुच्छ भक्तकी, उनके श्रीचरणोंमें प्रार्थना है । साथ ही इससे समाजका सूक्ष्म जगतसे सम्बन्धित कुछ अज्ञान दूर हो पाए तथा समाज भी साधना कर पुनः अपनी शाश्वत वैदिक संस्कृतिकी स्थूल और सूक्ष्म थातीसे परिचित हो पाए, यह श्रीगुरुके श्रीचरणोंमें प्रार्थना करती हूं ।
मैं बाल्यकालसे ही बुद्धिवादी रही हूं; अतः सूक्ष्म जगतकी किसी भी बातको तुरन्त विश्वास नहीं करती थी; परंतु ईश्वरने बाल्यकालसे ही अलौकिक प्रसंगोंकी झडी लगा दी और उस अगाध सर्वशक्तिमान सत्ताके आगे इस तुच्छ जीवको नतमस्तक होना पडा ! साधनासे पूर्व मेरी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी थी; किन्तु साधना आरम्भ करनेपर धीरे-धीरे सर्व पूर्व घटित प्रसंगों एवं मायाके ज्ञानका विस्मरण हुआ और यह साधना हेतु पोषक सिद्ध हुआ; किन्तु सूक्ष्मसे सम्बन्धित सर्व तथ्य, अनुभूतियां, प्रसंग इत्यादिको ईश्वरने मेरे अन्तर्मनमें ऐसे अंकित किए हैं कि उनका विस्मरण मात्र ध्यानावस्थामें हो पाते हैं, सम्भवत: ईश्वरको मुझसे ये सर्व तथ्य शब्दबद्ध करवाने थे; अतः उन्होंने इन्हें मेरे अन्तर्मनमें संजोकर रखे होंगे । उनके दिए हुए इस ज्ञान एवं अनुभूतियोंको आपके समक्ष प्रस्तुत कर, हो सकता है कि ये सर्व संस्कार नष्ट हो जाए और मैं उस परम सत्तासे एकरूप हो पाऊं; अतः उन्हें साक्षी मानकर यह लेख श्रृंखला प्रारम्भ कर रही हूं । (यहां संस्कारोंका अर्थ अन्तर्मनमें अंकित विचारोंके केन्द्र है ।)
मेरा सूक्ष्म सत्तासे प्रथम साक्षात्कार तब हुआ, जब मैं तीसरी कक्षामें थी । उस समयके अपने संस्मरणको बताती हूं –
शनिवारका दिन था, तीसरी कक्षाके वार्षिक परीक्षा समाप्त होनेके पश्चात् शीतकालीन अवकाश था और सोमवारको विद्यालय खुलनेवाले थे तथा परीक्षा परिणाम आनेवाले थे । उसी दिवस हमारे विद्यालयके एक शिक्षकका हमारे घरके पास आना हुआ । ईश्वरकी कृपासे पढाई-लिखाईके साथ अन्य क्रियाकलापोंमें भी अच्छी थी; अतः सभी शिक्षकोंका विशेष स्नेह प्राप्त था, उस दिन मैं और मेरी मां संध्या चार बजे धूप सेंक रहे थे, हमारे शिक्षक किसी विद्यार्थीको पढाने आए थे और वापस लौट रहे थे, हमारी मांको देखकर बोले, “सोमवारको परीक्षा परिणाम आनेवाला है और सदैव समान आपकी पुत्री पुनः पूरे वर्गमें प्रथम आई हैं । मुझे मिठाई खिलाएं ।” मांने उन्हें सम्मानपूर्वक घर बुलाया और उनका आदर-सत्कार किया ।
हमारे माता-पिता एवं दादी, हमें बाल्यकालसे भिन्न धर्मग्रन्थोंसे देवी-देवताओं एवं भक्तोंके प्रेरक कथाएं सुनाया करते थे जैसे हनुमानजीने लक्ष्मणजीके लिए संजीविनी बूटी लाने हेतु कैसे पर्वतको अपने हाथमें उठा लिया, नरसिंह भगवान खम्बेमें प्रकट होकर हिरण्यकश्यपुका वध किया इत्यादि, वे हमें संस्कारित करने हेतु सर्व प्रयास करते थे, आज इसका भान होता है और मन उनके प्रति कृतज्ञतासे भर उठता है । उन्होंने हमें अत्यधिक लाड-प्यार दिया; किन्तु साथ ही जहां संस्कारोंकी बात होती वहां किंचित मात्र भी उंच-नीच उन्हें मान्य नहीं था ।
सदैव समान सवेरेके जलपानसे पूर्व हमें स्नान कर पूजन करना था । पता नहीं मुझे क्या सूझा, मैंने पूजाघरमें पूजा करते समय भगवानजीके समक्ष एक विचित्र सी चुनौती रख दी । मैंने उनसे कहा, “मां-पिताजी, दादी सभी कहते हैं आपमें अत्यधिक शक्ति है; किन्तु मैं ऐसे ही आपको शक्तिमान नहीं माननेवाली हूं, मैं आपकी शक्तिकी परीक्षा लेना चाहती हूं, कल मेरे शिक्षकने कहा कि कक्षामें मैंने प्रथम स्थान पाया है, अब यदि आपमें शक्ति है तो मुझे द्वितीय या तृतीय स्थानमें लाकर दिखाएं !” मैंने अगले दिन पूजा नहीं की और भगवानजीको मैंने जो चुनौती दी थी उसे स्मरण कराकर विद्यालय चली गई । विद्यालय पहुंचनेपर मेरे कक्षाके शिक्षक मुझसे कहने लगे “तनुजा, तुम निराश न होना, प्रत्येक बार तो प्रथम होनेका पदक तुम्हें ही तो मिलता है, इस बार नहीं मिला तो क्या हुआ ?” वे मुझे सान्त्वना देनेका प्रयास कर रहे थे, मेरे शिक्षकको पता था कि साप्ताहिक परीक्षामें (टेस्टमें) दो अंक भी कम मिले तो नेत्रोंसे अश्रुकी धारा बहने लगती थी; क्योंकि मुझे लगता था कि मैं अनुत्तीर्ण हो गई; अतः इस बार यह सब सहन करना, मेरे लिए कठिन होगा । मुझे कुछ समझमें नहीं आ रहा था, परसों सब परीक्षा परिणाम तैयार होनेके पश्चात् ही तो एक शिक्षकने बताया था कि मैं कक्षामें प्रथम आई हूं, तो आज एक दिनके भीतर अकस्मात् यह सब कैसे हो गया और वैसे भी रविवारको तो विद्यालय बन्द रहता है ? मैं दौडकर सूचना फलकपर (नोटिस बोर्डपर) लगे परीक्षा परिणाम देखने गई तो देखा कि मेरा कक्षामें प्रथम या द्वितीय नहीं अपितु तृतीय स्थान था और यह देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्यचकित थी !
भगवानजीने मेरी दी हुई चुनौती स्वीकार कर अपना चमत्कार दिखा दिया था ! मुझे अपनी मूर्खता एवं दुस्साहसपर अत्यधिक ग्लानि हो रही थी । मैं विद्यालयके एक कोनेमें जाकर रोने लगी अर्थात् मां-पिताजी, दादी, जो कहते थीं, वह सच था, मैंने उनकी बातको परखनेका प्रयत्न किया और ईश्वरपर अविश्वास किया ! मैंने कक्षामें तृतीय स्थान प्राप्त किया था, इस बातका उस दिन मुझे उतना दु:ख नहीं था जितना अपनी धृष्टतापर था ! जब मैं प्रधानाध्यापक महोदयसे मुख्य हॉलमें पदक लेने गयी तो मैं रो रही थी, सभी सोच रहे थे कि मैं प्रथम पदको न पा सकी इसलिए रो रही हूं; परन्तु वास्तविकता कुछ और थी ।
जब मैं विद्यालयसे लौट रही थी तो जिस शिक्षकने मेरी मांको सब बताया था, वे मुझे मिले और मुझसे क्षमा मांगने लगे और कहने लगे “मैंने पहलेसे परीक्षा परिणाम बता कर चूक की; इसकारण तुम्हें अधिक दु:ख हुआ”; परन्तु मेरे मनमें यह चल रहा था कि यह सब हुआ कैसे ? जब विद्यालय बन्द था और शिक्षक सब परीक्षा परिणाम बनाकर चले गए थे तो पुनः यह उथल-पुथल कैसे हुई ? मैं ईश्वरके कार्य करनेकी पद्धति जानना चाहती थी । मैंने आंसू पोछे और शिक्षकसे पूछा कि यह सब कैसे हुआ ? वे शिक्षक, हमारे विद्यालयके प्रधानाध्यापकके चचेरे भाई थे; अतः उनके पास विद्यालयकी आन्तरिक जानकारी भी रहती थी और वे हमारी कक्षामें पढाते तो नहीं थे; किन्तु मुझसे अत्यधिक स्नेह करते थे । उन्होंने जो बताया उससे मुझे समझमें आ गया कि ईश्वरने अपने अस्तित्त्व और शक्तिका भान करानेके लिए यह लीला रची थी । जिस दिन हमारा परीक्षा परिणाम आनेवाला था, उसी दिवस प्रातःकाल हमारे प्रधानाध्यापकके मनमें विचार आया कि एक बार कक्षा एकसे पांच तकके परीक्षा परिणामोंके अंकको पुनः जोडकर देख लें; क्योंकि उन वर्गोंके लिए एक नए शिक्षककी नियुक्ति कुछ दिन पूर्व ही हुई थी और इसी क्रममें उन्होंने चार अंक मेरे अंकोंके जोडमें कम पाए और मैं तृतीय स्थानपर चली गयी ! मैं घर आई और अपने पूजा घरमें गयी और भगवानजीको उलाहना देना आरम्भ कर दिया । मैंने उनपर दोषारोपण करते हुए लडने लगी “आप इतने शक्तिशाली हो तो इतना तो समझना चाहिए कि भक्तकी कौन सी बात माननी चाहिए और कौन सी नहीं, पूरे विद्यालयामें आपके कारण मेरी नाक कट गई, मैंने आज तक तृतीय स्थान कभी नहीं पाया और यह सब आपके कारण हुआ, आप मुझे द्वितीय स्थान भी दे सकते थे; किन्तु आपने अपनी शक्ति सिद्ध करने हेतु ही मुझे तृतीय स्थान दिलवाया ।” तभी उन्होंने मुझसे कहा, “तुम्हींने तो मुझे द्वितीय या तृतीय स्थानपर लाने हेतु कहा था, मैंने तो मात्र वही किया ।” उनकी यह बात सुनकर मैं आश्चर्यचकित हुई कि वे बात भी कर सकते हैं तब मैंने उन्हें एक और बात कही, “आजसे मैंने मान लिया कि आप अत्यधिक शक्तिशाली हैं; परन्तु यदि भविष्यमें कभी कुछ ऐसा कुछ मांगु जिससे मेरी हानि हो तो आप मेरी बात कभी भी नहीं मानियेगा; अन्यथा मैं आपसे सदैवके लिए रूठ जाउंगी ।” और भगवानजीने भी ऐसा ही किया, उन्होंने आज तक मेरे लिए जो सर्वश्रेष्ठ हो सकता था, वही किया और कुछ प्रसंग मेरे जीवनमें जो घटित हुए वे मेरे मनके विरुद्ध एवं व्यथित करनेवाले थे; किन्तु उससे मेरा और समष्टिका कल्याण हुआ, यह आज ज्ञात होता है । उस दिनके पश्चात् मेरी और भगवानजीकी अच्छी मित्रता हो गई, ऐसी मित्रता कि आज तक किसी और मित्र, सखाकी कभी आवश्यकता नहीं जान पडी ।
इस प्रसंगके पश्चात् कई बार मैंने बाल्यकालमें अनुभव किया कि यदि मुझे कोई दु:खी करे और मैं उन्हें रोते-रोते अपनी व्यथा भगवानजीको बता दूं तो वे उन्हें त्वरित दण्डित करते थे और उसे दु:खी देख मैं भगवानजीके कहती कि आपने उन्हें इतना कठोर दण्ड क्यों दे दिया तो वे कहते “मैं तुम्हें रोते नहीं देख सकता, उसने तुम्हें रुलाया; इसलिए मैंने उसे दण्डित किया ।”  इसप्रकार मेरी और भगवानजीकी मित्रता कब प्रेममें परिवर्तित हो गई, मुझे भी ज्ञात नहीं है । मैं सदैव ही निर्गुणी उपासक रही हूं; अतः मेरे भगवानजीका कोई स्वरूप नहीं रहा; परन्तु समय-समयपर वे रूप परिवर्तित कर मेरा मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अपना प्रेम भी लुटाते रहे हैं । – तनुजा ठाकुर (३.२.२०१३) (क्रमश:)



One response to “सूक्ष्म सत्ताकी शक्तिसे इसप्रकार हुआ मेरा प्रथम साक्षात्कार”

  1. Biresh says:

    this experience is serious and humorous in the same breath.

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