सूक्ष्म जगत


समष्टि हितार्थ कार्य करनेका संकल्प लेते ही सूक्ष्म जगतकी अनिष्ट शक्तियोंने किया प्राणघातक आक्रमण और इसी क्रममें जागृत हुईं मेरी सूक्ष्म इन्द्रियां
जैसा कि आपको पूर्वके अंकमें बता चुकी हूं कि इस शीर्षकसे सम्बन्धित लेखमालाको प्रस्तुत करनेके पीछे मेरा विशुद्ध हेतु यह है कि समाजकी सूक्ष्म जगतसे सम्बन्धित कुछ अज्ञानता दूर हो पाए तथा समाज भी साधना कर पुनः अपनी शाश्वत वैदिक संस्कृतिकी स्थूल और सूक्ष्म थातीसे परिचित हो पाए ।
इस लेखमें मेरी सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां अकस्मात् किस प्रकार मेरे जीवनमें घटित एक प्रसंगसे जागृत होकर कार्यरत हो गई, उसके विषयमें बताने जा रही हूं; क्योंकि सूक्ष्म जगतकी जानकारी प्राप्त करने हेतु या उस क्षेत्रमें कार्य करने हेतु इनका जागृत एवं कार्यरत होना अति आवश्यक है | आज मुझे ऐसा लगता है कि ये इन्द्रियां भी ईश्वरीय नियोजन अनुसार ही योग्य समयपर कार्यरत हुईं एवं इस हेतु मैं उस परम सत्ताके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूं, सम्भवतः यदि मेरे जीवनमें यह प्रसंग घटित नहीं होता तो मैं आज अध्यात्मके क्षेत्रमें न होकर व्यवहारमें होती !
ख्रिस्ताब्द १९९० में बिहारमें हुए व्यापक स्तरके शैक्षणिक भ्रष्टाचारके कारण मुझे १२ वींकी बोर्ड परीक्षामें ५७ प्रतिशत अंक दिए गए थे, ‘दिए गए थे’ यह शब्दका प्रयोग इसलिए कर रही हूं; क्योंकि उसी मध्य समाचार छपा था कि विद्यार्थियोंकी उत्तर-पुस्तिकाएं (कॉपियां) जांची ही नहीं गईं थीं एवं सभीको मनमाने अंक दे दिए गए थे और जब परीक्षा परिणामसे क्षुब्ध, मेरे पिताजी, पटना जाकर मेरी परीक्षाकी कापियां जांचने हेतु कार्यालयीन प्रक्रिया कर उसे चुनौती देने गए तो ज्ञात हुआ कि कापियां कबाडियोंको पहले ही विक्रय कर दी गई हैं और समाचार पत्रोंमें प्रकाशित हो रहा था कि परीक्षा परिणाम आनेसे पूर्व ही परीक्षामें लिखे गए उत्तर पुस्तिका, ठोंगेके (कागदकी थैलीके) रूपमें अनेक लोगोंको मिले रहे हैं |
बाल्यकालसे ही जब भी मुझे परीक्षा परिणाममें ९८ या ९९ अंक आते थे तो मैं यह सोच कर रोने लगती थी  कि १०० अंक न मिलनेके कारण मेरी विद्यार्जन रुपी साधना अपूर्ण रह गयी और मैं अनुत्तीर्ण हो गयी । ऐसी स्थितिमें जब मुझे ५७ % प्रतिशत अंक मिले तो मुझे कितना मानसिक संताप पहुंचा होगा, इसकी कल्पना सहज ही किया जा सकता है ।
मेरे मनमें इस भ्रष्ट व्यवस्थाके प्रति आक्रोष निर्माण हुआ और इसके विरुद्ध विद्यार्थियोंको एकत्रित कर व्यापक आन्दोलन करनेका नियोजन बनाने लगी; किन्तु मेरे साधक वृत्तिके द्रष्टा पिताजीने मेरे आहत मनको समझाते हुए मुझे मेरे सामर्थ्यको बढानेका सुझाव दिया जिससे मुझे इस आन्दोलनमें असफल होनेका दुःख सहन न करना पडे । उन्होंने कहा, “आजका दुर्जन संगठित है, उसके पास धन, बल, राजनीतिक शक्ति एवं संरक्षण है, आपके पास मात्र मानसिक बल है, इससे कोई आन्दोलन सफल नहीं होता, भ्रष्टाचारियोंसे लडने हेतु सभी स्तरोंपर अपने सामर्थ्यको बढायें ।” उनकी यह बात मुझे अच्छी लगी और मैंने उनके बताए अनुसार अपने सामर्थ्यको अपनी बुद्धिसे बढाने हेतु प्रयत्न करने लगी |
इस घटनाके कुछ दिवस पश्चात् जब मुझे स्नातककी शिक्षा हेतु विषय चुनना था तो एक दिवस मैंने अपने पूजा घरमें मां दुर्गाके आगे संकल्प लिया कि आजसे मेरे जीवनको कोई व्यष्टि ध्येय नहीं रहा और अब मात्र मैं समष्टि ध्येय हेतु ही जीवित रहना चाहती हूं तथा भ्रष्टाचारियोंको दंड दिलवाकर सुराज्यकी स्थापनामें यथासम्भव योगदान देना ही मेरे जीवनका एकमात्र लक्ष्य होगा; किन्तु आश्चर्यकी बात यह है कि इस संकल्पको लेते ही अगले एक वर्ष मैं सतत् ज्वरसे पीडित होनेके कारण अत्यधिक अस्वस्थ रही; मुझपर किसी भी औषधिका लाभ नहीं हो रहा था एवं सभी प्रकारके खून मूत्र इत्यादिके जांचमें भी कुछ भी परिणाम नहीं आ रहा था | उस मध्य जिन भी चिकित्सकोंको मुझे दिखाया गया, वे सभी, मुझे हुआ क्या था, यह बतानेमें असमर्थ रहे और सब बुद्धिसे मात्र अनुमान लगाकर ही मुझे औषधि देते रहे | माता-पिताने भिन्न प्रकारकी चिकित्सा पद्धतियोंसे मेरे कष्टके निवारण हेतु यथासम्भव प्रयत्न किए; किन्तु कुछ लाभ नहीं पहुंच रहा था | मुझे तीव्र ज्वर आता था और जैसे ही मेरे शरीरमें प्राणशक्ति अत्यधिक न्यून हो जाती थी अर्थात् मैं अत्यधिक अशक्त(कमजोर) हो जाती थी तो कुछ दिवस पश्चात् ज्वर स्वतः ही उतर जाता था; क्योंकि औषधिसे तो वह कुछ घंटे उतरता था और पुनः आ जाता था अर्थात् औषधिसे कुछ लाभ नहीं होता था | ज्वर ठीक होनेपर जैसे ही माता-पिताकी सेवासे मैं स्वस्थ होने लगती थी तो कुछ दिवस पश्चात् पुनः ज्वर आ जाता था और यह क्रम एक वर्षतक चला | इस ज्वरके कारण मेरी प्राणशक्ति और शरीरकी प्रतिरोधात्मक शक्ति सदैवके लिए घट गई, साथ ही मेरी अस्थियोंमें वेदना रहने लगी, मेरे केश आधेसे अधिक झड गए, औषधियोंकी उष्णताके कारण मेरे मुखपर बडे-बडे फोडे, निकलने लगें और मेरी पाचनशक्ति भी अत्यधिक अशक्त हो गई, एकप्रकारसे इस प्राणघातक आक्रमणने मुझे शारीरिक रूपसे सदैवके लिए दुर्बल बना दिया |
इसमें दो मत नहीं कि इस सूक्ष्म आक्रमणमें मात्र मैं इसलिए बच पाई; क्योंकि मेरे अध्यात्मिक वृत्तिके माता-पिताने मात्र मेरी शारीरिक स्तरपर चिकित्सा नहीं करवाई अपितु अनेक प्रकारके आध्यात्मिक उपचार भी किए | मुझे आज भी स्मरण है कि बिहार-झारखण्डमें कार्तिक मासके शुक्ल पक्षमें षष्टिके दिवस छठ नामक एक सूर्योपासनाका त्योहार होता है जिसमें नदी या तालाबमें जाकर प्रथम दिवस सूर्यास्तके समय एवं द्वितीय दिवस सूर्योदयके समय सूर्यको अर्घ्य दिया जाता है | ख्रिस्ताब्द १९९१ में इस पर्वसे कुछ दिवस पूर्व मैं ज्वरसे पीडित थी और उस समय एक एलोपेथिक चिकित्सकने मेरे माता-पिताको कहा था कि अब आपकी पुत्रीके शरीरमें न तो खून है और न ही शक्ति; अतः यदि पुनः ज्वर हुआ तो इसे बचाना कठिन होगा ! मैं ज्वर ठीक होते ही जैसे ही थोडी भी स्वस्थ होती थी तो सामान्य होकर सब कुछ करने लगती थी और छठके प्रथम अर्घ्यके दिवस भी मैं अपने घरके निकट तालाबके घाटपर जानेका सोच रही थी और मुझे ज्वर आने लगा; किन्तु मां डर जायेंगी इसीलिए मैंने उन्हें कुछ नहीं बताया था | जब मैं घाटपर पहुंची तो मेरा मुख ज्वरके तपकर लाल हो चुका था, मेरी मांको समझमें आ गया कि मुझे पुनः ज्वर आ रहा है, मैंने, उन्हें सूर्य देवतासे मेरे लिए आर्ततासे प्रार्थना करते हुए देखा था, न जाने उन्होंने सूर्य देवतासे क्या कहा कि उस दिवसके पश्चात् मुझे अनेक वर्ष ज्वर नहीं आया !
यहां एक तथ्य आपको स्पष्ट करूं कि सभी चिकित्सक मेरी मानसिक स्वास्थ्यको देखकर अत्यधिक आश्चर्य करते थे; क्योंकि यद्यपि मुझे परीक्षा परिणामके कारण मानसिक आघात पहुंचा था और जब तीव्र ज्वर रहता था तो मैं कष्टसे निश्चित ही तडपती थी; किन्तु ज्वरके उतरते ही मैं सामान्य होकर आनन्दी रहती थी अर्थात् मुझे इतने कष्ट होनेपर भी अवसाद इत्यादि मनोरोग नहीं हुए थे | यद्यपि इस मध्य समष्टि हितार्थ मैं क्या कर सकती हूं, इसका चिंतन मैं गुप्त रूपसे करती रहती थी और उस दिशामें योग्य प्रयत्न करने भी आरम्भ कर दिए थे |
मेरे माता-पिता, शिक्षक इत्यादि चाहते थे कि मैं विज्ञानके क्षेत्रमें उच्च शिक्षा ग्रहण करूं और मुझे ये सर्व विषय अति प्रिय थे; किन्तु इस घटनाके पश्चात् मैंने प्रशासनिक अधिकारी बन इस व्यवस्थासे भ्रष्टाचार मिटानेका निर्णय लिया था और इसी क्रममें मैंने मुझे जो विषय रत्ती भर भी अच्छे नहीं लगते थे (इतिहास और अर्थशास्त्र) उन्हें स्नातककी पढाई हेतु चुने | मुझे यह पूर्व नियोजन प्रशासनिक सेवाकी परीक्षामें सफल होने हेतु करना आवश्यक लगा | मेरे इस निर्णयसे मेरे माता-पिता, सगे-सम्बन्धी, शिक्षकगण, मित्र एवं शुभचिन्तक सभी आश्चर्यचकित थे और उनमें कुछ लोगोंने मुझे ऐसा निर्णय लेनेसे मना भी किया था; क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि इन विषयोंका चुनाव मेरी प्रवृतिके विरुद्ध है; किन्तु मुझे ज्ञात था कि समष्टि हितार्थ कार्य करने हेतु त्यागकी आवश्यकता होती है और इस दिशामें यह मेरा प्रथम त्याग था |
श्रीगुरुसे जुडनेके पश्चात् जब मुझे अध्यात्मके सूक्ष्म पक्षका ज्ञान होने लगा तो मुझे ज्ञात हुआ कि समष्टि स्तरपर स्वस्थ समाजकी रचनाका संकल्प लेनेके परिणामस्वरूप पांचवें पातालके मान्त्रिक(सूक्ष्म जगतकी अत्यन्त शक्तिशाली अनिष्ट शक्तियां) मेरे दृढ निश्चयसे चिढकर ही मुझे मृत्यु तुल्य कष्ट दे रहे थे और सूक्ष्म जगतके मन्त्रिकोंका यह प्रथम सबसे बडा आक्रमण था |
एक वर्ष तक सतत् होनेवाले इस सूक्ष्म आक्रमणके परिणामस्वरूप ईश्वरने मेरी पिछले जन्मकी सुप्त साधनाको जागृत कर दी थी जिससे मैं भी उन सूक्ष्म आसुरी शक्तियोंके आघातका प्रतिकार कर सकूं और उसी समयसे मेरा सूक्ष्म युद्ध आरम्भ हो गया जो आजतक निरन्तर चल रहा है |
एक दिवस मैं हस्त रेखाकी कीरोकी पुस्तक बिछावनपर ऐसे ही समय व्यतीत करने हेतु पढ रही थी कि तभी मुझे लगा कि इसमें कुछ त्रुटियां हैं और मुझे इस बातसे अत्यधिक आश्चर्य हुआ क्योंकि इससे पूर्व मैंने कभी हस्त रेखाकी पुस्तक नहीं पढी थी | मैंने उसी दिवस आए हमारे मामाके हाथ देखे और मैंने कुछ ऐसी बातें कही जिसे सुनकर वे आश्चर्यचकित थे और उस समयसे मेरे मनमें एक प्रश्न सदैव कौंधता था कि बिना किसी भी शास्त्रका अभ्यास किए मुझमें यह भूत-भविष्य देखनेकी क्षमता निर्माण कैसे हो गई ? मेरे समक्ष जो भी व्यक्ति आता तो उसके विषयमें स्वतः ही विचार आने लगते थे यद्यपि वे मुझे अपना हाथ दिखाते थे; किन्तु मैंने हस्त रेखापर कोई विशेष अभ्यास नहीं किया था | आरम्भमें, मैं मुझे ज्वरके समय देखने आनेवाले सगे-सम्बन्धियोंकी हाथ देखा करती थी और वे मेरी भूत और भविष्यके सम्बन्धमें बातें सुनकर बडे आश्चर्यचकित होते थे और स्वस्थ होनेके पश्चात् जुलाई १९९७ तक मैंने अनेक लोगोंकी भविष्यवाणियां कीं जो कालान्तरमें सत्य सिद्ध हुईं | भविष्यवाणी करनेके मध्य लोगोंके जीवनमें आनेवाले कष्टोंका निराकरण कैसे हो इस दिशामें भी चिन्तन आरम्भ हो गए और कुछ हितैषियोंने मुझे ज्योतिषशास्त्र, रत्नशास्त्र, अंक शास्त्र आदिके माध्यमसे लोगोंके कष्ट दूर करनेके सुझाव दिए; किन्तु मुझे इन सब शास्त्रोंमें कोई विशेष रुचि नहीं जगी, मैं तो दुखोंके शाश्वत उपायको जानना चाहती थी और इस सबके कारण मेरी अध्यात्ममें जिज्ञासा बढी और मैं साधनाके साथ अध्यात्मका अध्य्यन गम्भीरतापूर्वक करने लगी और जिसकी परिणति मेरे श्रीगुरुसे साक्षात्कारके रूपमें मई १९९७ में हुई जिससे मेरी शंकाओंका समाधान हुआ एवं मेरे संकल्पको पूर्ण करनेकी सार्थक दिशा मिली | – तनुजा ठाकुर



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