स्वामी तैलंग – एक अवधूत सिद्ध महायोगी !


दक्षिणमें विशाखापट्टनमके पास एक जिला है विजना । यहींके एक जमींदार नृसिंहधरके घर प्रथम पत्‍नीके अत्यधिक मनौतियोंके पश्चात् ख्रिस्ताब्द १६०७की पौष शुक्‍ल एकादशीको रोहिणी नक्षत्रमें एक पुत्र हुआ । नाम रखा गया तैलंगधर स्‍वामी । अंतर्मुखी तैलंगधर मंदिरोंमें एकांतमें ही बैठा रहता था । शिवालयोंमें तो वह समाधिस्‍थ हो जाता था। जन्‍मकुण्‍डलीकी स्थिति तो माता-पिता पहले ही जानते थे; परन्तु उसे साकार होते देख अब वे उद्वेलित भी होने लगे कि यह बच्‍चा उनके पास टिकेगा नहीं । कुछ ही वर्षों पश्चात् माता-पिताकी मृत्यु  हो गयी और तैलंगधरने अपना सब कुछ अपनी दूसरी माताके पुत्रका सौंप, स्वयं देशाटनको निकल गये ।

बताते हैं कि पुष्‍करमें इन्‍हें दीक्षा मिली और उसके पश्चात् ये हिमालय और नेपाल सहित पूरा भारत घूम आये । हालांकि इस मध्य किंवदंतियोंके अनुसार उन्‍होंने कई मृतकोंको जीवित कर दिया, सहस्रोंको रोगमुक्‍त किया; परन्तु उन्हें प्रसिद्धि तब मिली जब नेपाल नरेशके तीरसे घायल एक बाघको उन्‍होंने बचाया । इतना ही नहीं, नेपालके राजाको उन्‍होंने भविष्‍यमें कभी शिकार ना करनेकी प्रण भी दिलायी । इसके पश्चात् उन्‍होंने स्वयंको प्रयाग और काशी तक ही सीमित कर दिया एवं अपनी साधनामें पराकाष्ठाको प्राप्त हुए । उनका मानना था कि एकाग्रता ऐसी होनी चाहिए कि उपासक और ईश्‍वरका भेद ही मिट जाए ।

उनसे सम्बंधित कुछ प्रेरक प्रसंग इस प्रकार हैं |

प्रसंग क्र. १: बात ईश्‍वर दर्शन, मोक्षमार्ग और विरक्तिकी हो रही थी । भव्‍य राजसी बजडा कलकल बहती नदीपर माध्यम गतिसे झूम रहा था । दो राजाओंके समान ही भव्‍य आसनपर बैठा साधु प्रत्येक प्रश्‍नका अकाट्य उत्तर दे रहा था । दोनों राजा उनके तर्कोंके सामने नतमस्‍तक थे, कि अचानक उन नंगे साधुने काशी नरेशकी गोदमें रखी तलवार उठायी और उलट-पुलट कर देखनेके पश्चात् उसे गंगा नदीकी गहरी धारामें फेंक दिया। इतना होते ही भक्ति और वैराग्‍यपर चल रही चर्चाने अकस्मात् ही उग्र रूप धारण कर लिया । श्रद्धासे झुका काशी नरेश आग बबूला हो उठे । साथ बैठे उज्‍जैन नरेश भी क्रोधित हो उठे कि इस नंग-धडंग साधूका यह दुस्साहस ! उन्हें बंदी बनानेकी आज्ञा दी ही जानेवाली थी कि साधुने नदीमें हाथ डाला और एक साथ दो तलवारें निकाल कर पूछा – तुम्‍हारी कौन सी है ?

दोनों ही एक सी थीं । राजा स्‍तब्‍ध ! अब साधुने झिडका- जो तुम्‍हारी है, उसे तो तुम पहचान नहीं पा रहे हो, और जो वस्‍तु तुम्‍हारी नहीं है, उसके लिए इतना क्रोध ! अभी तो तुम लोग जीवात्‍मा, परमात्‍मा और मुक्ति मोक्षपर गहरी जिज्ञासा प्रकट कर र‍हे थे । और अब सारा वैराग्‍य समाप्त हो गया ! धिक्‍कार है ऐसे जीवनपर । ले पकडअपनी तलवार और सम्‍भाल अपना अहंकार ।

इतना कहते ही नंगा अवधूत बजडे़से कूद कर गंगाकी धारामें लुप्त हो गया । ऐसे  दिगम्‍बर साधु थे तैलंग स्‍वामी ।

प्रसंग क्र.२ : इन्हीं तैलंग स्‍वामीको रामकृष्‍ण परमहंसने देखते ही दोनों हाथ उठा कर उन्‍हें गले लगा लिया था और रामकृष्‍ण परमहंसको तैलंग स्‍वामीमें ही साक्षात् विश्‍वनाथ महादेवके दर्शन वहीं सडकपर ही हो गये ।  हुआ यह कि रामकृष्‍ण परमहंस अपने शिष्‍योंके साथ काशी आये । मन था कि भोलेनाथके दर्शन और उपासना करनेकी । स्‍नान करके शिष्योंके साथ विश्‍वनाथ गलीमें जैसे ही घुसे, एक महाकाय नंग-धडंक काला-कलूटा साधु अकस्मात् ही उनके समक्ष आ गया । कुछ क्षण एकदूसरेको निहारनेके पश्चात् दोनों ही एकदूसरेके गले लग गये । शिष्‍य आश्चर्यचकित थे । कुछ देर दोनों ही बेसुध रोते हुए लिपटे रहे । तत्पश्चात् वहीं सडकपर ही बातचीत हुई । बस वहींसे रामकृष्‍ण परमहंस वापस लौट लिये । शिष्‍योंने पूछा, “महाराज, विश्‍वनाथजीके दर्शन नहीं करेंगे |”  स्वामीजीने उत्तर दिया, “वह तो हो गया। स्वयं विश्‍वनाथ भगवान ही तेलंग स्वामीके रूपमें मेरे गले लिपटे थे |”

प्रसंग क्र. ३ : योगी यदि षडचक्रभेद क्रियामें पारंगत हो जाए तो निर्वाण-मुक्ति सहज है ।  वाराणसीमें तैलंगस्‍वामीने कुछ दिन तक तो कौपीन पहनना शुरू कर दिया, कुछ समय पश्चात् उसे भी उतार कर वे नंगे ही रहने लगे । एक दिन एक अंग्रेज जिलाधीशने उन्‍हें नंगा घूमता देख बंदी बना लिया। सुनवाईके समय तैलंगस्‍वामी कठघरेसे ही लापता हो गये । लौटे तब जब उनके समर्थकोंकी भारी भीड अदालतके बाहर हंगामा करनेपर उतारू थी । लोगोंने जिलाधीशको समझाया अवधूत अलौकिक शक्तिके धनी हैं, उन्‍हें बंदी नहीं बनाना चाहिए। जिलाधिकारी ऐसे करनेके लिए मान तो गया; परन्तु उसी समय उनका उपहास करते हुए बोला, “क्‍या यह अवधूत मेरा भोजन ग्रहण करेंगे |”

पुनः हंगामा खडा हो गया । अंग्रेज गोमांस खिलाना चाहता था, यह बात तैलंगस्‍वामी भी समझ गये । उन्होंने कहा, “मैं अवश्य खाऊंगा परन्तु पहले तुम्‍हें मेरा भोजन खाना होगा |” अंग्रेजके हामी भरते ही तैलंगस्‍वामीने अपना हाथ पीछे लगाया और अपनी टट्टी हाथमें लेकर जिलाधीशके सामने कर दी । जिलाधीश उबकाई लेते हुए अदालत छोड भागा और तैलंगस्‍वामी वापस गंगातटपर आ गये ।

तैलंगस्‍वामीने ईश्‍वरके साकार या निराकार होनेका अत्यधिक सरल उदाहरण दिया। बंगालके एक संत अन्‍नदा ठाकुरके प्रश्नपर तैलंगस्‍वामी एक पुस्‍तक उठाकर बोले- इस छोटेसे स्‍थानको घेरे हुए पुस्‍तकको हम देख पा रहे हैं, इसलिए यह साकार है; परन्तु ईश्‍वर तो ब्रह्माण्‍डमें व्‍याप्‍त है, सो वह निराकार है । उसके लिए हमें चक्षुओंको खोलना होगा। वह ज्ञानसे नहीं, साधनासे दिखेगा ।

तैलंग स्‍वामीका मानना था कि ईश्‍वरको अपने भीतर ही ढूंढना चाहिए। सारे तीर्थ इसी शरीरमें है। गंगा नासापुटमें, यमुना मुखमें, वैकुण्‍ठ हृदयमें, वाराणसी ललाटमें तो हरिद्वार नाभिमें है; अतः यहां-वहां क्‍यों भटकनेकी क्या आवश्यकता है ! जिस पुरीमें प्रवेश करनेपर न संकोच हो और न कुण्‍ठा, वही तो है वैकुण्‍ठ। उन्होंने प्राण त्‍यागनेकी तिथि एक मास पूर्व ही तय कर ली थी । हर मनुष्‍यको पोथी माननेवाले इस मलंग अवधूतने ख्रिस्ताब्द १८८७की पौष शुक्‍ल एकादशीको २८० वर्षकी आयुमें ब्रह्मलीन हो गए ।

 



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