तनावसे मुक्ति


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प्राचीन कालमें एक विशाल राज्यका राजा सदैव चिन्तित एवं तनावग्रस्त रहता था । कभी वह समीपस्थ (पडोसी) राज्योंके आक्रमणकी आशंकासे भयभीत रहता, तो कभी अपने स्वजनोंद्वारा षड्यंत्र रचे जानेके अंदेशेसे तनावग्रस्त रहता । इसी आशंकाके कारण उसे न निद्रा आती और न ही भूख लगती थी । जब वह अपने राजकीय उद्यानके उद्यान-पालकको (मालीको) देखता तो उसे ईर्ष्या होती थी; क्योंकि वह अत्यंत शांति तथा आनन्दसे चटनी-रोटी खाता और रात्रिमें निश्चिन्त हो सोता । एक दिन राजाने अपनी समस्या राजगुरुके समक्ष रखी । उन्होंने कहा, ‘राजन् ! तुम राजपाट अपने पुत्रको सौंप दो ।’ राजा बोला, ‘गुरुजी !  वह तो मात्र चार वर्षका अबोध बालक है ।’ राजगुरुने समाधान दिया, ‘तो तुम ऐसा करो कि मुझे राजपाट सौंपकर निश्चिंत हो जाओ ।’ राजाको यह उचित लगा और राजाने ऐसा ही किया । कुछ दिनों पश्चात  राजाने राजकोषसे धन लेकर व्यापारकी इच्छा जताई तो राजगुरुने कहा, ‘अब यह राजकोष मेरा है । तुम इसमेंसे धन नहीं ले सकते ।’ तब राजाने अन्य राज्यमें अन्य उपजीविका हेतु सेवाकार्य (नौकरी) करनेकी तत्परता दिखाई तो राजगुरु बोले, ‘यह तो तुम मेरे राज्यमें भी कर सकते हो ! मैं तो आश्रममें ही रहूंगा । तुम मेरे कर्मचारीके रूपमें राज-काज करो और राजप्रासादमें (महलमें) ही रहो ।’ राजाने यह स्वीकार किया और पूर्वकी भांति राज चलाने लगा । कुछ समय पश्चात राजगुरु आए तो उन्होंने कर्मचारीकी भांति नीचे खडे राजासे पूछा, ‘तुम्हारी भूख व नींदकी स्थिति कैसी है ? राजाने कहा, “अब भूख भी लगती है और नींद भी पर्याप्त आती है ।” तब राजगुरुने समझाया,  “देखो ! सब कुछ पूर्वानुसार (पहले जैसा) ही है । भेद केवल इतना है कि पूर्वमें तुम कार्यको स्वयंपर लादकर, उसके कर्तापनके बोधसे ग्रसित थे और अब इसे अपना कर्तव्य समझकर, अनासक्त होकर एक सेवककी भांति कर रहे हो । स्मरण रखो ! जीवनको योग्य प्रकारसे जीनेके लिए अपने उत्तरदायित्वको कर्तव्य समझकर करना चाहिए ।” राजाको नई दृष्टि मिल गई ।

   वस्तुतः प्रत्येक कार्यको कर्तव्य समझकर करनेपर चिंता व तनावसे मुक्ति पाई जा सकती है और इस प्रसंगसे यह भी सीखनेको मिलता है कि हमारे पास जो भी है, उसे हम अपना समझकर उससे आसक्ति रखते हैं; अतः सुखी अथवा दुःखी होते रहते हैं । यदि हम लभ्य (उपलब्ध) साधनोंको ईश्वरकी धरोहर समझें और स्वयंको उसका न्यासी या प्रबन्धक, तो इससे जुडे सुख-दुःखसे ऊपर उठ सकते हैं; और जीवनकी सार्थकता प्रत्येक कर्मको अलिप्ततासे तथा ईश्वरीय कार्य समझकर पूर्ण करनेमें ही है !



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