उत्तम सन्तति हेतु गर्भाधान संस्कारका महत्त्व (भाग – ४)


श्रेष्ठ सन्तानकी उत्पत्तिके लिए हमारे मनीषियोंने अपने तपोबलसे प्राप्त ज्ञानद्वारा कुछ धार्मिक कर्म स्थापित किए हैं, जिन्हें हिन्दू धर्मग्रन्थोंमें देखा भी जा सकता है । इन्हीं नियमोंका पालन करते हुए विधिनुसार सन्तानोत्पत्तिके लिए आवश्यक कर्म करना ही गर्भाधान संस्कार कहलाता है । जैसे ही पुरुष व स्त्रीका समागम सफल होता है, जीवकी निष्पत्ति होती है व स्त्रीके गर्भमें जीव अपना स्थान ग्रहण कर लेता है । गर्भाधान संस्कारके माध्यमसे जीवमें निहित उसके पूर्वजन्मके विकारोंको दूरकर उसमें अच्छे गुणोंकी उन्नति करते हुए, उसका सूक्ष्म जगतकी अनिष्ट शक्तियोंसे रक्षण किया जाता है । कुल मिलाकर गर्भाधान संस्कार बीज व गर्भ सम्बन्धी मलिनताको दूर करनेके लिए किया जाता है ।
गर्भाधान संस्कारकी विधि
सर्वप्रथम तो सन्ततिकी इच्छा रखनेवाले माता-पिताको गर्भाधानसे पहले तन व मनसे स्वच्छ होना चाहिए । तन और मनकी स्वच्छता उनके आहार, आचार, व्यवहार आदिपर निर्भर करती है । इसके लिए माता-पिताको उचित समयपर ही समागम करना चाहिए । दोनों मानसिक रूपसे इस कर्मके लिए सिद्ध होने चाहिए । यदि दोनोंमेंसे यदि एक इसके लिए सिद्ध न हो तो ऐसी स्थितिमें गर्भाधानके लिए प्रयास नहीं करना चाहिए । शास्त्रोंमें लिखा भी है –
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ ।
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः ॥
अर्थात स्त्री व पुरुषका जैसा आहार और व्यवहार होता है, जैसी कामना रखते हुए वे समागम करते हैं वैसे गुण सन्तानके स्वभावमें भी दिखाई देते हैं ।
गर्भाधान कब करें ?
सन्तान प्राप्तिके लिए ऋतुकालमें ही स्त्री व पुरुषका समागम होना चाहिए । पुरुष परस्त्रीका त्याग रखे ! स्वाभाविक रूपसे स्त्रियोंमें ऋतुकाल रजो-दर्शनके सोलह दिनोंतक माना जाता है । इनमें आरम्भके चार-पांच दिनोंतक तो पुरुष व स्त्रीको कभी भी समागम नहीं करना चाहिए । इस अवस्थामें समागम करनेसे गम्भीर रोगोंका जन्म हो सकता है । धार्मिक रूपसे ग्यारहवें और तेरहवें दिन भी गर्भाधान नहीं करना चाहिए । अन्य दिनोंमें आप गर्भाधान संस्कार कर सकते हैं । अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी, अमावस्या आदि पर्व रात्रियोंमें स्त्री समागमसे बचने हेतु बताया गया है। रजो-दर्शनसे पांचवी, छठी, सातवीं, आठवीं, नौंवी, दसवीं, बारहवीं, पंद्रहवीं और सोलहवीं रात्रिमें गर्भाधान संस्कार किया जा सकता है । मान्यता है कि ऋतुस्नानके पश्चात स्त्रीको अपने आदर्श रूपका दर्शन करना चाहिए अर्थात स्त्री जिस महापुरुष जैसी सन्तान चाहती है, उसे ऋतुस्नानके पश्चात उस महापुरुषके चित्र आदिका दर्शनकर उनके विषयमें चिन्तन करना चाहिए । गर्भाधानके लिये रात्रिका तीसरा प्रहर श्रेष्ठ माना जाता है ।

गर्भाधान कब न करें?
मलिन अवस्थामें, मासिक धर्मके समय, प्रात:काल, सन्ध्याके समय, मनमें यदि चिन्ता, भय, क्रोध आदि मनोविकार हों तो उस अवस्थामें गर्भाधान संस्कार नहीं करना चाहिए । दिनके समय गर्भाधान संस्कार वर्जित माना जाता है । मान्यता है कि इससे दुराचारी सन्तानका जन्म होता है । श्राद्धके दिनोंमें, धार्मिक पर्वोंमें व प्रदोष कालमें भी गर्भाधान शास्त्रसम्मत नहीं माना जाता ।



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