आगरा, उत्तर प्रदेशके श्री. मनीष सहगलकी अनुभूतियां


१. पिछले कुछ दिनोंसे हमारे रसोईघरमें अत्यधिक चींटियां आ रही थीं । विभूति डालनेपर उस दिवस नहीं आती थीं; किन्तु अगले दिन पुनः आ जाती । पूज्या मांके ‘व्हाट्सऐप्प’ सत्संगमें सुना कि पाकशालामें सनातन संस्थाकी सात्त्विक नामजपकी पट्टियां लगाएं ! जिस दिनसे हमने पट्टियां लगाईं, उस दिवससे आज दो सप्ताह हो गए हैं; किन्तु अभीतक एक चींटी भी नहीं दिखाई दी । इस उपायके मार्गदर्शन हेतु आपके चरणोंमें कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।

– मनीष सहगल, आगरा (०३.०९.२०१८)

२. मैं एक निजी विद्यालयमें (प्राइवेट स्कूलमें) शिक्षक हूं, मेरी आय निश्चित और सीमित है; किन्तु मैं जब भी वैदिक उपासना पीठके कार्यके निमित्त मासिक अर्पणमें अंश मात्रकी भी वृद्धि करता हूं तो मुझे उसका चार गुना अधिक धन उस माह प्राप्त होता है और यह कैसे सम्भव होता है ? मुझे समझ नहीं आता, ईश्वर किसी न किसीको निमित्त बनाकर यह करते हैं, इस तथ्यकी मैंने पिछले पांच वर्षोंसे अनुभूति ली है; इसलिए आज यह लिखकर देनेकी इच्छा हुई । पूज्या तनुजा मां, हम सबका कितना ध्यान रखती हैं ? यह सोच मेरा मन भर आता है, इस विशेष कृपा हेतु आपके श्रीचरणोंमें मनःपूर्वक कृतज्ञता व्यक्त करता हूं ।

अनुभूतिका विश्लेषण : हमारी संस्था परम्परागत आश्रम समान दानसे चलता है । इसके अतिरिक्त उपासनाके पास आयका अभीतक कोई स्रोत नहीं है । उपासनासे जो भी साधक जुडकर सेवा करते हैं, वे अपनी आयसे थोडा भाग प्रत्येक माह त्याग करते हैं, यह उनकी साधनाका भाग है, मनीष भी यह सेवा नियमित तबसे कर रहे हैं जब मैं २०१३ में एक बार आगरा धर्म यात्राके मध्य गई थी और उन्होंने अपने नगरमें प्रवचन रखवाया था, इस प्रवचनमें हमने सभीको कहा था कि साधनाका अर्थ होता है ईश्वर या ईश्वरीय कार्यके लिए तन, मन धनका त्याग करना । प्रवचन सुनकर या लेखोंको पढकर, उसे जीवनमें उतारनेको ही साधकत्व कहते हैं । और साधकको गुरुतत्त्व अवश्य ही अनुभूति देते हैं, वैसे भी स्कन्द पुराण कहता है कि दस प्रतिशत धनके त्याग उपरान्त ही गृहस्थोंका धन शुद्ध होता है और यदि यह धन सन्त कार्यमें दिया जाए तो इसकी सुखद अनुभूति त्वरित होती है । – सम्पादक



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