कश्मीरी पण्डित विस्थापन दिवसपर विशेष


अ. कश्मीरी पण्डित विस्थापित कैसे हुए ?

१९ जनवरी हिन्दू बहुल राष्ट्रके लिए एक काला दिवस है; क्योंकि इसी दिवस अर्थात् १९ जनवरी १९९० को सामूहिक रूपसे कश्मीरी हिन्दुओंको अपने स्वर्ग समान कश्मीर प्रदेशको मुसलमानोंके आतंकके कारण छोडना पडा और यह दिवस कश्मीरी हिन्दू विस्थापन दिवसके रूपमें स्मरण किया जाता है; किन्तु क्षोभका तथ्य यह है कि २७ वर्ष पूर्ण होनेके पश्चात् भी कश्मीरी पण्डितोंके साथ न ही न्याय नहीं हुआ है और न ही उनके पुनर्वास  हेतु कुछ ठोस उपाय योजना निकाली गई है, इसके विपरीत धरतीके स्वर्गमें रहनेवाले इस शान्तिप्रिय समुदायको मार्गकी ठोकरें खानेपर विवश होना पडा। कश्मीर पण्डितोंके नरसंहार और पलायनकी सत्ताईसवीं बरसीपर आप सबको वहां, कश्मीरपर  उनपर हुए अत्याचारके विषयमें जानकारी मिले एवं २७ वर्ष पश्चात् भी हमारे कश्मीरी हिन्दू भाई-बहन अपने ही देशमें विस्थापितों समान जीवन व्यतीत कर रहे हैं, यह सभी हिन्दुओंको ज्ञात हो इसीलिए आज यह लेख आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूं, यदि कुछ जागरुक हिन्दू इस घटनाक्रमसे अवगत हैं, आपसे नम्र विनती है कि आप अपने अन्य मित्रों एवं परिजनको बताएं एवं इसे साझा कर, सभीको इस सत्यसे अवगत कराएं; क्योंकि जो कश्मीरमें ढाई दशक पूर्व हुआ था वही आज मुसलमान बहुल केरल, पश्चिम बंगाल, भाग्यनगर(हैदराबाद), उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्योंमें हो रहा है । वस्तुत: हिन्दुओंपर आज देशके कई स्थानोंमें अत्याचार हो रहा है; परन्तु विदेशी धन एवं संकेतोंसे संचालित आज भारतके प्रसार माध्यम इसे बताते नहीं है, यथार्थ तो यह है कि आज सामाजिक जालस्थानपर कुछ जागरुक, धर्मनिष्ठ और राष्ट्रनिष्ठ हिन्दू सत्यको समाजके समक्ष लाने हेतु प्रयत्नशील हैं अन्यथा आज हमें असम, मुज्ज़फरनगर, मालदा, पूर्णियामें हुए साम्प्रदायिक उत्पातके विषयमें जो  समाचार प्राप्त हो रहे हैं, वे नहीं मिल पाते और कश्मीरी हिन्दुओंके नरसंहार समान इन समाचारोंसे भी आजका सर्व सामान्य हिन्दू अनभिज्ञ रहता । अतः हिन्दुओ ! समय रहते सचेत हो जाएं और कश्मीरी हिन्दुओं समान अपनी दुर्दशा न होने दें ! कश्मीरके हिन्दू, हिन्दू मुसलमान भाई-भाईका राग अलापते रहे और उन्हीं भाईरूपी कठमुल्लोंने उनसे उनका सब कुछ छीन लिया और वे कुछ नहीं कर पाए । इसपर हमारे धर्मनिरपेक्ष प्रसार माध्यम, मौन रहे, उन्होंने देशके लोगोंतकको इस वीभत्स नरसंहारके समाचार नहीं बताए, इसलिए देशके अधिकांश हिन्दुओंको ये ज्ञात नहीं कि १९ जनवरी १९९०को कश्मीरमें ऐसा क्या हुआ था कि लाखोंकी संख्यामें हिन्दुओंको घर छोडकर भागना पडा और अपने ही देशमें शरणार्थियों समान नारकीय जीवन व्यतीत करना पडा ! इनकी हृदय-विदारक स्थितिपर देश-विदेशके लेखक, तथाकथित बुद्धिजीवीवर्ग, भारतकी संसद, देशके अधिकांश हिन्दू, मुसलमान, धर्मनिरपेक्ष सभी मौन रहे । किसीने भी ३५००००  कश्मीरी पण्डितोंके विषयमें न कुछ  कहा और न ही आज तक उनपर हुए अत्याचारोंका उन्हें न्याय ही मिल पाया है और न उनके पुनर्वास हेतु कुछ किया गया है ।
  आ. कश्मीरी पण्डितोंकी इस दुर्दशाका इतिहास
 कश्मीरका नाम कश्यप ऋषिके नामपर पडा था एवं कश्मीरके मूल निवासी सारे हिन्दू थे । कश्मीरी पण्डितोंकी विरासत वैदिक हिन्दू संस्कृति जितनी ही प्राचीन है एवं वे कश्मीरके मूल निवासी हैं; अतः यदि कोई कहे कि भारतने कश्मीरपर अधिकार कर लिया है, यह सर्वथा मिथ्या है । १४वीं शताब्दीमें तुर्किस्तानसे आये एक क्रूर मुसलमान आतंकी दुलुचाने ६०,००० की सेनाके साथ कश्मीरपर आक्रमण किया और कश्मीरमें इस्लामिक साम्राज्यकी स्थापना की । दुराचारी दुलुचाने नगरों एवं गावोंको नष्ट कर दिया तथा सहस्रों हिन्दुओंका अमानवीय रूपसे नरसंहार किया । बहुत सारे हिन्दुओंको बलपूर्वक यातनाएं देकर मुसलमान बनाया गया । बहुत सारे हिन्दुओंने, जो इस्लाम स्वीकार नहीं करना चाहते थे, विष खाकर आत्महत्या कर ली और शेष भाग गए । आज जो भी कश्मीरी मुसलमान उस क्षेत्रमें हैं, उन सभीके पूर्वजोंको इन अत्याचारोंके कारण बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया था ।
 इ. कश्मीरका भारतका अधिकृत भाग होना
ख्रिस्ताब्द १९४७ में ब्रिटिश संसदने “भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम” के अनुसार ब्रिटेनने निश्चय किया कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रोंको पाकिस्तान बनाया जाएगा । १५० राजाओंने पाकिस्तान चुना और बाकि ४५० राजा भारतके पक्षमें थे । मात्र एक जम्मू और कश्मीरके राजा बच गए थे जो निर्णय नहीं कर पा रहे थे; परन्तु जब पाकिस्तानने सेना भेज कर कश्मीरपर आक्रमण किया तो कश्मीरके राजाने भी हिन्दुस्तानमें कश्मीरके विलयके लिए हस्ताक्षर कर दिए । ब्रिटिशोंने यह स्पष्ट रूपसे कहा था कि यदि राजाने एक बार हस्ताक्षर कर दिए तो उसे परिवर्तित नहीं कर सकते तथा इस विषयपर जनताका मत पूछनेकी आवश्यकता नहीं है तो जिन विधानोंके (कानूनोंके) आधारपर भारत और पाकिस्तान बने थे उन्हीं विधानोंके अनुसार ही कश्मीर सम्पूर्ण रूपसे भारतका अंग बन गया था । इसलिए पुनः सभी जान ले कि यदि कोई भी कहता है कि कश्मीरपर भारतने अनधिकृत अधिकार कर रखा है वह सर्वथा मिथ्या है ।
 ई. १९ जनवरी १९९० ही कश्मीरमें कश्मीरी पण्डितोंके पलायनका मूल कारण
कश्मीरके सर्वाधिक नूतन जनसांख्यिकीय आंकडोंपर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि स्वतंत्रताके समय वहां घाटीमें १५% कश्मीरी पण्डितोंकी जनसंख्या थी जो आज १% से घटकर ०% की ओर बढ गई है । हालके इतिहासमें कश्मीरके जनसंख्या आंकडोंमें यदि परिवर्तनका सबसे बडा कारक ढूंढें तो वह एक दिन अर्थात् १९ जनवरी १९९० के नामसे जाना जाता है ।
 उ. कश्मीरमें पृथकवादी घटनाओं एवं नरसंहार एवं कश्मीरी पण्डितोंके पलायनका क्रूर सत्य  कश्मीरी पण्डितोंको उनकी मातृभूमिसे निष्कासित किए जानेकी इस घटनाकी यह भीषण और वीभत्स कथा १९८९ में आकार लेने लगी थी, वे बताते हैं कि १९९० के दशकमें जब आतंकवाद अपने चरमपर था तो कई चरमपंथियोंने चुन-चुन कर कश्मीरी पण्डितोंकी हत्या की । थोडा और पीछे जाएं तो चरमपंथी गतिविधियोंके अन्तर्गत राज्यमें प्रथम गोली १४ सितम्बर १९८९ को चली थी जिसने भारतीय जनता पार्टीके राज्य सचिव टिक्का लाल टपलूके प्राण हर लिए । १९ जनवरी १९९० के मध्ययुगीन, भीषण और पाशविक दिनके पूर्वतक, पाकिस्तान प्रेरित और प्रायोजित आतंकवादी और पृथकवादी (अलगाववादी)  अपनी जडें जमा चुके थे । कश्मीरमें अलगाववादको समर्थन करने और कश्मीरको हिन्दू विहीन करनेके उद्देश्यसे हिजबुल मुजाहिदीनकी स्थापना हो गई थी । भारतीय  शासन आतंकवादकी समाप्तिमें लगा हुआ था एवं वहां रह रहे ये कश्मीरी पण्डित भारत शासनके (सरकारके) मित्र और इन आतंकियों व पृथकवादियोंके शत्रु और भेदिये सिद्ध हो रहे थे । इस कालमें कश्मीरमें पृथकवादी समाज और आतंकवादियोंने इस शान्तिप्रिय हिन्दू पण्डित समाजके विरुद्ध चल रहे अपने धीमे और छद्म संघर्षको घोषित संघर्षमें परिवर्तित कर दिया । हिजबुल मुजाहिदीनने ४ जनवरी १९९० को कश्मीरके स्थानीय समाचार पत्रमें एक एक विज्ञप्ति प्रकाशित कराई जिसमें स्पष्टतः सभी कश्मीरी पण्डितोंको कश्मीर छोडनेकी धमकी दी गई थी । इस भडकाऊ, घृणा, धमकी, हिंसा और भयसे भरे शब्दों और आशयवाली विज्ञप्तिके प्रकाशनके पश्चात् कश्मीरी पण्डितोंमें गहन भय और घबराहटका संचार हो गया । यह स्वाभाविक भी था; क्योंकि तबतक कश्मीरी पण्डितोंके विरोधमें कई छोटी-बडी घटनाएं, वहां सतत् घट ही रही थी और कश्मीरी प्रशासन और भारत शासन (सरकार) दोनों ही उनपर नियन्त्रण करनेमें असमर्थ हो रहे थे ।
इस क्रममें उधर पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री बेनजीर भुट्टोने भी दूरदर्शन वाहिनीपर कश्मीरियोंको भारतसे मुक्ति पानेका एक भडकाऊ भाषण दे दिया । घाटीमें सर्वत्र भारत विरोधी नारे लगने लगे । घाटीकी मस्जिदोंमें अजानके स्थानपर हिन्दुओंके लिए धमकियां और हिन्दुओंको निष्कासित करने या मार-काट देनेके घृणास्पद आह्वानके स्वर गूंजने लगे । पृथकवादियोंको कश्मीर प्रशासनका ऐसा वरद हस्त प्राप्त रहा कि वहां कुछ समय पश्चात् उन्होंने कश्मीरी पण्डित और उसके डेढ महीने पश्चात् जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंटके नेता मकबूल बटको मृत्युदण्ड सुनानेवाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजूकी हत्या की गई और कश्मीरी पण्डितोंमें एक भयका वातावरण निर्माण हो गया । प्रतिक्रियाएं होनेपर ३२० कश्मीरी स्त्रियों, बच्चों और पुरुषोंकी हत्या कर दी गई। कश्मीर दूरदर्शनके निर्देशक लसा कौल, राजनीतिक कार्यकर्ता टीकालाल टपलू, नर्स सरला भट्ट, जज नीलकंठ गुर्टू, साहित्यकार सर्वानन्द प्रेमी, बाल कृष्ण गंजू आदि दशकाधिक निर्दोष कश्मीरी पण्डितोंको मृत्युके घाट उतारा गया । इन सब हत्याकांडोंके कारण कश्मीरी पण्डितोंका धैर्य टूटने लगा । यह घिनौना रक्त रंजित खेल चलता रहा और हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य और केन्द्र शासन व प्रसार माध्यमोंने कुछ नहीं किया ।
१९ जनवरी १९९० की भीषणताको और कश्मीर एवं भारत सरकारकी विफलताको इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि पूरी घाटीमें कश्मीरी पण्डितोंके घर और ‘दुकानों’पर सूचना या ‘नोटिस’ चिपका दिए गए थे कि २४ घण्टोंके भीतर वे घाटी छोड कर चले जाएं या इस्लाम ग्रहण कर कठोरतासे इस्लामके विधानोंका पालन करें ! घरोंपर धमकी भरें पत्रक चिपकानेकी इस निर्लज्ज घटनासे भी भारत और कश्मीरी शासन नहीं चेता परिणामस्वरूप पूरी घाटीमें कश्मीरी पण्डितोंके घर धूं-धूं कर जल उठे, कश्मीरी पण्डितोंके सिर काटे गए, कटे सिरवाले शवोंको चौक-चौराहोंपर लटकाया गया । कश्मीरी पण्डितोंकी स्त्रियोंके साथ पाशविक अत्याचार हुए । उष्ण लौह-छड शरीरमें चिपकाई गई और अपने शील रक्षण हेतु सैकडों कश्मीरी पण्डित स्त्रियोंने आत्महत्या करनेमें ही भलाई समझी । अब भारतकी ही धरतीपर कठमुल्ले हिन्दुओंसे चीख-चीख कर कहने लगे कि कश्मीर छोड कर चले जाओ और अपनी बहू-बेटियां हमारे लिए छोड जाओ । ऐसी स्थितिमें बडी संख्यामें कश्मीरी पण्डितोंके शवोंका समुचित अन्तिम संस्कार भी नहीं होने दिया गया था, कश्यप ऋषिके संस्कारवान कश्मीरमें संवेदनाएं समाप्त हो गईं और पाशविकता-बर्बरताका वीभत्स नंगा नाच दिखाई देने लगा । चारों और होनेवाले नरसंहारसे घबराकर १९ जनवरी १९९० को साढे तीन लाख कश्मीरी पण्डित अपने घरों, ‘दुकानों’, व्यापारिक प्रतिष्ठानों, खेतों, बागों और सम्पत्तियोंको छोडकर विस्थापित होकर भटकने हेतु विवश हो गए । कई कश्मीरी पण्डित अपनोंको खोकर गए, अनेक अपनोंका अन्तिम संस्कार भी नहीं कर पाए और सहस्रों तो वहांसे निकल ही नहीं पाए और मार-काट डाले गए ।
 ऊ. कश्मीरी पण्डितोंके नरसंहार एवं पलायनपर अब्दुला वंशकी मूक सहमति
   इस भयानक नरसंहारपर फारुख अब्दुल्लाकी रहस्यमयी मौन और कश्मीरी पण्डित विरोधी मानसिकता केवल इस घटनाके समय ही सामने नहीं आई थी; अपितु उस कालमें तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला अपने पिता शेख अब्दुल्लाके पदचिह्नोंपर चलते हुए अपना कश्मीरी पण्डित विरोधी आचरण कई बार सार्वजनिक कर चुके थे ।
 ए. कश्मीरसे पलायनके पश्चातका नारकीय जीवन
कश्मीरी पण्डितोंके लिए विस्थापनके पश्चातका जो समय आया वह भी किसी प्रकारसे आतताइयोंद्वारा दिए गए कष्टोंसे कम नहीं रहा । वे शासकीय (सरकारी) शिविरोंमें नारकीय जीवन जीनेको विवश हुए । सहस्रों कश्मीरी पण्डित दिल्ली, मेरठ, लखनऊ जैसे नगरोंमें लू (सनस्ट्रोक)से इसलिए मृत्युको प्राप्त हुए; क्योंकि उन्हें ‘गर्म मौसम’में रहनेका अभ्यास नहीं था । उस समय बडे स्तरपर इन लोगोंने राज्यसे पलायन किया और अपना घर सम्पत्ति और भूमिसे दूर, यह कश्मीरी पण्डित समाज, भारत के भिन्न-भिन्न राज्योंमें बडी दयनीय स्थितिमें जीवन बितानेको विवश हुए ।
 ऐ. इतने वर्ष पश्चात् भी कश्मीर समस्याका कोई ठोस समाधान नहीं निकाल पाना
पच्चीस वर्ष पूर्ण हुए; किन्तु कश्मीरी पण्डितोंके घरोंपर हिजबुल द्वारा नोटिस चिपकाए जानेसे लेकर विस्थापनतक और विस्थापनसे लेकर आज तकके समयमें मानवाधिकार, मीडिया, गोष्ठी(सेमीनार), तथाकथित बुद्धिजीवी और संयुक्त राष्ट्र संघ सभी इस विषयमें थोडे बहुत बोले या नहीं यह तो नहीं पता; किन्तु इन कश्मीरी पण्डितोंकी समस्याका कोई ठोस हल अबतक नहीं निकला, यह सम्पूर्ण जगतको ज्ञात है । यह सचसे मुख फेरने और ‘शुतुरमुर्ग’ होनेका ही परिणाम है कि कश्मीरियोंके साथ हुई इस घटनाको निर्लज्ज रूपसे स्वेच्छासे पलायन बताया गया । इस घटनाको राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगने सामूहिक नर संहार माननेसे भी अस्वीकार किया; ये घोर अन्याय और तथ्योंकी असंवेदनशील  अनदेखी है । आज देशके लोगोंको भारतीय प्रसार माध्यम, कश्मीरी पण्डितोंके मानवाधिकार-हननके विषयमें नहीं बताते हैं; किन्तु आंतकवादियोंके मानवाधिकारके विषयमें अपने स्वर अवश्य मुखरित करते हैं । आज सभीको यह बताया जा रहा है कि AFSPA नामका किसी विधान(कानून)का भारतीय सेनाने अत्यधिक दुरुपयोग किया है । कश्मीरमें पृथकवादी संगठन निर्दोष लोगोंकी हत्या करवाते हैं और भारतीय सेनाके सैनिक जब उन आतंकियों और उनके सहयोगियोंके विरुद्ध कोई करवाई करते हैं तो ये देशद्रोही पृथकवादी नेता अपने बिके हुए ‘मीडिया’की सहायतासे चीखना-चिल्लाना प्रारम्भ कर देते हैं कि “देखो हमारे ऊपर कितना अत्याचार हो रहा है ।” कभी साधन सम्पन्न रहे ये हिन्दू/पण्डित आज सामान्य आवश्यकताओंके लिए विवश हैं, उन्हें उस दिनकी प्रतीक्षा है जब वे ससम्मान अपनी धरतीपर वापस जा सकेंगे ।
ओ. धारा ३७० द्वारा कश्मीरको विशेष अधिकार प्राप्त होना

धारा ३७० भारतीय संविधानका एक विशेष अनुच्छेद (धारा) है, जिसकेद्वारा जम्मू एवं कश्मीर राज्यको सम्पूर्ण भारतमें अन्य राज्योंके तुलनामें विशेष अधिकार अथवा (विशेष स्थान) प्राप्त है । देशको स्वतन्त्रता मिलनेके पश्चातसे लेकर अबतक यह धारा भारतीय राजनीतिमें बहुत विवादित रही है एवं अनेक राष्ट्रवादी दल इसे जम्मू एवं कश्मीरमें व्याप्त पृथकवादके लिए उत्तरदायी मानते हैं तथा इसे समाप्त करनेकी मांग करते रहे हैं । भारतीय संविधानमें अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबन्ध सम्बन्धी भाग २१ का अनुच्छेद ३७० जवाहरलाल नेहरूके विशेष हस्तक्षेपसे बनाया गया था । स्वतन्त्र भारतके लिये कश्मीरका विषय आजतक समस्या बना हुआ है ।

औ. कश्मीरको प्राप्त विशेष अधिकार
धारा ३७० के प्रावधानोंके अनुसार, संसदको जम्मू-कश्मीरके बारेमें रक्षा, विदेश और संचारके विषयमें नियम बनानेका अधिकार है; परन्तु किसी अन्य विषयसे सम्बन्धित विधानको लागू करवानेके लिए केन्द्रको राज्य शासनका अनुमोदन चाहिए ।
* इसी विशेष अधिकारके कारण जम्मू-कश्मीर राज्यपर संविधानकी धारा ३५६ लागू नहीं होती ।
* इस कारण राष्ट्रपतिके पास राज्यके संविधानको निरस्त करनेका अधिकार नहीं है ।
* ख्रिस्ताब्द १९७६ का नगरीय भूमि विधान जम्मू-कश्मीरपर लागू नहीं होता ।
* इसके अन्तर्गत भारतीय नागरिकको विशेष अधिकार प्राप्त राज्योंके अतिरिक्त भारतमें कहीं भी भूमि क्रयका अधिकार है अर्थात भारतके दूसरे राज्योंके लोग जम्मू-कश्मीर में भूमि नहीं क्रय कर सकते ।
* भारतीय संविधानकी धारा ३६० जिसके अन्तर्गत देशमें वित्तीय आपातकाल लगानेका प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीरपर लागू नहीं होती ।
* धारा ३७० के अन्तर्गत कुछ विशेष अधिकार कश्मीरकी जनताको उस समय दिए गए थे, ये विशेष अधिकार इस प्रकार हैं –
विशेष अधिकारोंकी सूची
१. जम्मू-कश्मीरके नागरिकोंके पास दोहरी नागरिकता होती है ।
२. जम्मू-कश्मीरका राष्ट्रध्वज भिन्न होता है ।
३. जम्मू-कश्मीरकी विधानसभाका कार्यकाल ६ वर्षोंका होता है, जबकि भारतके अन्य राज्योंकी विधानसभाओंका कार्यकाल ५ वर्षका होता है ।
४. जम्मू-कश्मीरके भीतर भारतके राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकोंका अपमान अपराध नहीं होता है ।
५. भारतके उच्चतम न्यायालयके आदेश जम्मू-कश्मीरके भीतर मान्य नहीं होते हैं ।
६. भारतकी संसदको जम्मू-कश्मीरके सम्बन्धमें अत्यन्त सीमित क्षेत्रमें विधान (कानून) बना सकती है।
७. जम्मू-कश्मीरकी कोई महिला यदि भारतके किसी अन्य राज्यके व्यक्तिसे विवाह कर ले तो उस महिलाकी नागरिकता समाप्त हो जाएगी । इसके विपरीत यदि वह पाकिस्तानके किसी व्यक्तिसे विवाह कर ले तो उसे भी जम्मू-कश्मीरकी नागरिकता मिल जाएगी ।
८. धारा ३७० के कारण कश्मीरमें सूचनाका अधिकार (RTI) लागू नहीं है,  शासकीय अंकेक्षण (CAG) लागू नहीं है । संक्षेपमें कहें तो भारतका कोई भी विधान वहां लागू नहीं होता ।
९. कश्मीरमें महिलाओंपर ‘शरीयत’ विधान (कानून) लागू है ।
१०. कश्मीरमें पंचायतके अधिकार नहीं ।
११. कश्मीरमें चपरासीको २५०० रूपये ही मिलते हैं ।
१२. कश्मीरमें अल्पसंख्यकोंको (हिन्दू-सिख) १६% आरक्षण नहीं मिलता ।
१३. धारा ३७० के कारण कश्मीरमें बाहरके लोग भूमि नहीं क्रय कर सकते हैं ।
१४. धारा ३७० के कारण कश्मीरमें रहनेवाले पाकिस्तानियोंको भी भारतीय नागरिकता मिल जाती है ।
अं. हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना ही कश्मीर समस्याका मूल समाधान
कश्मीर समस्याको समाप्त करने हेतु  धारा ३७० को समाप्त करनेकी मांग समय समय पर की गई है और भाजपाने भी अपनी पिछली चुनावी कार्यसूची अर्थात् एजेंडामें इसे समाप्त करने करनेका आश्वासन दिया था; किन्तु अभीतक इस दिशामें कुछ भी हुआ नहीं है । कश्मीरी पण्डित विस्थापितोंके संगठन ‘पनुन कश्मीर’ने कश्मीर घाटीमें विस्थापित कश्मीरी पण्डितोंको विभिन्न क्षेत्रोंकी अर्थात् होमलैंड दिए जानेको ही विस्थापन की समस्याका स्थायी हल बताया है; किन्तु जिन विस्थापित कश्मीरी पण्डितोंको २६ वर्षमें न्याय नहीं मिला है, उन्हें निकट भविष्यमें न्याय मिलेगा या उनका पुनर्वसन किया जाएगा इसमें सन्देह  ही है, इस हेतु अब हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना, एक मात्र पर्याय है एवं सभी हिन्दुओंको मिलकर इस महती कार्यमें अपना यथाशक्ति सहयोग देना चाहिए । कश्मीर जैसी स्थिति पुनः कहीं न हो इस हेतु हिन्दुओंको सतर्क और जागरुक रहना चाहिए, भारतमें मुसलमानोंकी जनसंख्या वृद्धिको रोकने हेतु कठोर विधान बनाया जाना, आतंकका पर्याय बन चुके पाकिस्तानको समय रहते उसे पाठ पढाना एवं आतंकवादियोंको यथाशीघ्र दण्ड देना, यह अति आवश्यक हो गया है । हिन्दुओंके मनसे हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाईका भ्रम दूर होना अत्यधिक आवश्यक है एवं हिन्दुओंको धर्मशिक्षण देकर धर्माभिमानी बनाते हुए संगठित होकर राष्ट्रके रक्षण हेतु कृतिशील होना होगा अन्यथा आप सभीको ज्ञात है ही कि भारतके अनेक नगरोंमें एक छोटा पाकिस्तान बस चुका है और यदि समय रहते हम सतर्क और सचेत नहीं हुए तो भारतको सीरिया बननेमें समय नहीं लगेगा, इसीलिए आजका हिन्दू कश्मीरी पण्डितोंसे सीख ले और सत्यको स्वीकार करे ! इसीमें उसका हिन्दू धर्मका और इस राष्ट्रका कल्याण है ।-  तनुजा ठाकुर

 



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