वर्तमान कालमें आरम्भ हआ ‘हनीमून’का प्रचलन हैं अनुचित !


वर्तमान कालमें एक अनुचित प्रचलन आरम्भ हुआ है और वह है विवाहके उपरान्त नवविवाहित जोडेका कहीं भ्रमण हेतु जाना जिसे आजकल ‘हनीमून’ कहते हैं । पूर्वकालमें विवाहित जोडा अपने कुलदेवी या इष्टदेवताके देवालय जाता करते थे और यदि वह उनके मूल स्थानसे दूर हो तो वे किसी सगे-सम्बन्धीके घर रुकते थे, वहीं आज प्रेतबाधित विश्रामालयमें जाकर अपने विवाहित जीवनका शुभारम्भ करते हैं । आपको बताया था न मैकालेकी आसुरी शिक्षण पद्धति शिक्षितोंके विवेकको नष्ट कर दिया है !
यह सत्य है कि यदि विवाह माता-पिताद्वारा निर्धारित युवक या युवतीसे हुआ हो तो एक-दूसरेको समझने हेतु कुछ समय एक साथ बिताना चाहिए; किन्तु आजकल नव-विवाहित दम्पति, इसी क्रममें विवाह उपरान्त किसी सुन्दर नैसर्गिक स्थानपर जाकर रहते हैं । यहांतक सब ठीक है; किन्तु वे इसी क्रममें जब विवाह उपरान्त त्वरित कुछ दिवस किसी विश्रामालयमें रहते हैं तो वहांके रज-तम प्रधान वास्तुसे उन्हें सूक्ष्म स्तरपर हानि पहुंचती है । कुछ विवाह बन्धन तो आजकल ‘हनीमून’के पश्चात ही टूट जाते हैं या उनमें मनमुटाव आरम्भ हो जाता है । इससे ही इस कृत्यसे नव विवाहित दम्पतिको कितनी हानि पहुंचता है ?, यह ज्ञात होता है; किन्तु इससे अधिक वे अपनी अगली पीढीको कैसे हानि पहुंचाते हैं ?, यह बताती हूं ।
वैसे भी आज सौ प्रतिशत लोगोंको पितृदोष है, इस कारण आज ५० प्रतिशत बच्चोंको गर्भसे ही अतृप्त पितरोंके कारण कष्ट होता है, ऐसी स्थितिमें यदि किसी विश्रामालयमें स्त्री गर्भवती हो जाती है तो उसके गर्भको अनिष्ट शक्तियोंके कष्ट बढनेकी सौ प्रतिशत आशंका होती है; क्योंकि आज देश हो या विदेश सभी विश्रामालय (होटल) भुतहा हैं ।
गर्भाधान संस्कारके विषयमें आज जानकारी न होनेके कारण आजके दम्पतीको इस सम्बन्धमें सात्त्विक वास्तु, शुभ मुहूर्तका कितना अधिक महत्त्व है ?, यह ज्ञात नहीं है ।
विवाहका एक मूल उद्देश्य होता है और वह है उत्तम सन्ततिकी प्राप्ति । किन्तु उत्तम सन्ततिकी प्राप्ति हेतु क्या करना चाहिए यह भी धर्म शिक्षणके अभावमें आज हिन्दुओंको ज्ञात नहीं है, ऊपरसे ये विवाहोपरान्त जब गर्भ ठहरनेकी सबसे अधिक सम्भवनाएं होती हैं तो भ्रमणके या एकाकी समय बितानेके उद्देश्यसे ये अशुद्ध एवं अपवित्र स्थानपर रात्रि निवास करते हैं, अशुद्ध एवं अपवित्र भोजन करते हैं और अपनी आनेवाली पीढीको उपहार स्वरूप अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट दे देते हैं । इसलिए सभी नवदम्पतिसे मेरा निवेदन है कि वे ऐसा न करें ! आजके विश्रामालय कैसे होते हैं, इसका अनुभव मैंने धर्मप्रसारके मध्य लिया है । इस विषयमें मैंने एक लेख लिखा था उसे यहां पुनः प्रकाशित कर रही हूं जिससे आपको इस विषयमें थोडी और सुस्पष्टता आ जाए ।
वर्तमान समयके ‘होटल’ कहलानेवाले विश्राम गृह अर्थात भूतोंका प्रमुख स्थल !
धर्मप्रसारके मध्य अनेक बार हमें विश्राम गृहोंमें (होटलोंमें) भी रुकना पडता है । सूक्ष्म इन्द्रियां कार्यरत होनेके कारण ऐसा कह सकती हूं कि इन स्थानोंपर रुकना अर्थात कुछ नूतन घटित होने हेतु सिद्ध रहना होता है, आजका यह लेख इसी प्रकारकी कुछ अनुभूतियोंका संग्रह है । ईश्वरीय कृपासे मैं सदैवसे ही निडर रही हूं एवं अधिकांश समय श्रीगुरुने मुझसे अकेले ही धर्मप्रसार हेतु यात्राएं कर सेवा करवाई हैं, ऐसेमें जब भी किसी विश्राम गृहमें रात्रि बिताना हो तो प्रथम रात्रि मेरे साथ कुछ न कुछ निराला घटित होना निश्चित ही होता है, चाहे मैं कितनी भी सतर्क होकर सारे आध्यात्मिक उपाय क्यों न कर लूं; मात्र गुरुकृपाके कारण वे मुझे कभी विशेष कष्ट नहीं दे पाए या भयभीत नहीं कर पाए ।
प्रस्तुत है ऐसी ही कुछ अनुभूतियां –
* ख्रिस्ताब्द २०११ में धर्मयात्राके मध्य देहलीमें एक साधकने कोस्ट गार्डके एक विश्राम गृहमें रुकवानेकी मेरी व्यवस्था करवाई थी । प्रथम दिवस रेलयानसे (ट्रेनसे) एक दिवस यात्रा करके आनेके पश्चात, सवेरेसे ही कोई न कोई जिज्ञासु या साधक मिलने आते रहे; अतः मैं रात्रिमें साढे दस बजेतक अत्यधिक थक चुकी थी एवं मैं नामजप, प्रार्थना कर, वास्तुशुद्धिकी उदबत्ती जलाकर सो गई । मैं जहां रुकी थी, वह एक ‘सुईट’ थी, जिसमें एक शयन-कक्ष और एक बैठक-कक्ष था । मैं अपने कक्षके द्वारकी सिटकिनी बन्दकर सोई थी, यह मुझे अच्छेसे स्मरण है । अकस्मात साढे बारह बजे रातमें मेरे कक्षके द्वारके बार-बार खुलने एवं बन्द होनेकी ध्वनिने मेरी नींदको भंग कर दिया । मैंने उठकर द्वारकी सिटकिनी पुनः बन्द की और समय देखा तो पाया कि अर्ध रात्रिका समय था । कुछ क्षणोंके लिए मुझे नींद नहीं आई और तब मैं सोचने लगी कि मैंने सोनेसे पूर्व इसकी सिटकिनी बन्द की थी तो यह खुल कैसे गई ?, जैसे ही मैंने इसका सूक्ष्मसे निरीक्षण किया तो ज्ञात हुआ कि उस विश्राम गृहकी सभी अनिष्ट शक्तियोंने मेरा ध्यान आकृष्ट करने हेतु यह धृष्टताकी थी, मुझे उन सबकी उपस्थितिकी भी स्पष्ट रूपसे प्रतीति हुई । मैं अत्यधिक थकी हुई थी; अतः पुनः कवच लेकर एवं उन्हें सावधान कर कि मुझे पुनः न जगाएं, अन्यथा मैं भगवानजीसे उनके विषयमें परिवाद (शिकायत) कर दूंगी, यह बताकर सो गई । मैं वहां छह दिवस थी और वह स्थान नोएडामें मुख्य मार्गपर था, तब भी जो भी मुझसे मिलने आनेवाले थे, सभीको वहांकी अनिष्ट शक्तियां दिशाभ्रमित कर, उनका समय व्यर्थ अवश्य करती थीं । यद्यपि अगली रातसे ऐसा कोई प्रसंग नहीं हुआ; किन्तु अनिष्ट शक्तियोंकी संख्या इतनी अधिक थी कि मैं रात्रिमें दण्डदीप (ट्यूबलाइट) जलाकर ही सोती थी, जिससे वे अधिक प्रमाणमें उत्पात न कर सकें ।

* ख्रिस्ताब्द २००५ में मैं कोलकाताके दो साधकोंके साथ भुवनेश्वरमें लगे पुस्तक मेलेमें सनातन संस्थाकी ग्रन्थ प्रदर्शनीमें सेवा करने हेतु गई थी । वहां भी जिस अतिथिगृहमें (गेस्ट हाउसमें) हमें जो कक्ष दिया गया था, उसे देखते ही समझ आ रहा था कि वह भूतहा है; अतः जब हमने व्यवस्थापकको उसे परिवर्तित करने हेतु कहा तो वे कहने लगे शेष सभी कक्ष भरे हुए हैं, आपको यदि यहां रहना है तो इसी कक्षमें रहना होगा, हमें वहां दस दिवस रहना था और हमें किसी हितचिन्तकने निःशुल्क दिलवाया था; इसलिए वहां रुकनेके अतिरिक्त हमारे पास और कोई पर्याय नहीं था । पुस्तक मेला एक विशाल खेलके ‘मैदान’में आयोजित हुआ करता था; अतः भीड होनेपर अत्यधिक धूल उडा करती थी । तीसरे दिवस रविवार होनेके कारण हम सभी धूलसे तो भर ही गए थे, अत्यधिक थक भी गए थे; अतः मैंने और एक सह-साधिकाने रात्रिमें स्नान करनेका निर्णय लिया जिससे उष्णता (गर्मी) भरी रातमें अतिथिगृहके पंखेकी खड-खड ध्वनि हमारी निद्राको बाधित न करे और स्नानसे स्वच्छ होनेपर हमें थोडी स्फूर्ति भी मिले । मैं, जब सामूहिक स्नानगृहमें स्नान करने गई और स्नान हेतु वस्त्र उतार ही रही थी कि मुझे भान हुआ कि अनेक अनिष्ट शक्तियां लाल-लाल नेत्रोंसे मुझे घूर रही हैं, कुछ क्षणोंके लिए मेरे रोंगटे खडे हो गए और लगा कि वहांसे बिना स्नानके किए ही अपने कक्षमें चली जाऊं; परन्तु मैंने थोडा साहस किया; क्योंकि धूल, गर्मी और थकावट तीनोंको दूर करनेका स्नान, एकमात्र उपाय था, तभी मुझे ध्यानमें आया कि मेरी मां मुझे सदैव कहती थीं कि रात्रिमें स्नान नहीं करना चाहिए और उस दिवस मुझे उसका कारण ज्ञात हो गया । मैंने वस्त्र धारण कर अपने देहके चारों और कवच मांगकर स्नान कर लिया; परन्तु थकावट अधिक होनेके कारण स्नानके पश्चात बिछावनपर धडामसे ढेर हो गई । सूक्ष्म युद्धके कारण उस समय मेरी प्राणशक्ति भी अल्प ही रहती थी; अतः मैं और भी अधिक निढाल हो गई थी । हमारी सह-साधिकाने भी मुझे जगाया नहीं और वह कक्षकी बत्ती जली छोडकर सो गईं । अगले दिवस वह मुझसे कहने लगीं कि कल रात्रि मैंने स्नानगृहमें अनेक लाल-लाल घूरती आंखें देखीं और मुझे अत्यधिक डर लगा; इसलिए रात्रिमें मैं बिना बत्ती बुझाए नामजप करती रही और मुझे अर्ध रात्रितक नींद नहीं आई, भिन्न प्रकारकी दुर्गन्ध आती रही । उस रात्रि सूक्ष्म युद्ध हुआ था और उस कारण ही वह दुर्गन्ध, उन्हें आ रही थी । अगले दिवस हम नामजप कर और कवच लेकर सोए तो सवेरे देखा कि भीत (दीवार) एवं हमारे चादरपर रक्तके छींटे थे । उस साधिकाको आठ दिवस अत्यधिक कष्ट हुआ, कभी उन्हें नींद नहीं आती थी, तो कभी नींदमें भयानक स्वप्न दिखाई देते थे, तो कभी अत्यधिक डर लगता था; किन्तु हमारे पास और कोई उपाय नहीं था; अतः हमें उस भूतहा अतिथिगृहमें दस दिवस रहना ही पडा । मुझे तो सूक्ष्म युद्धके कारण पहलेसे ही कष्ट हो रहे थे, वे मात्र मेरी प्राणशक्तिको और भी न्यून कर देते थे और रात्रिमें सेवासे आनेके पश्चात लगता था कि अगले दिवस मैं सेवाके लिए नहीं उठ पाउंगी; परन्तु गुरुकृपाके कारण मैं प्रातःकाल जब उठती थी तो स्वयंमें स्फूर्ति (ताजगी) अनुभव करती थी ।
रक्तके छींटे आना तो हमारे लिए सामान्य सी बात थी; क्योंकि सनातन संस्थाके साधकोंके साथ तो इस प्रकारकी घटनाएं अनेक बार हो चुकी थीं । उसी समय जब मैं वाराणसी आश्रममें रहती थी तो जिस कक्षमें मैं रहती उस कक्षके भीतोंपर और मेरी चादरोंपर अनिष्ट शक्तियां काले रंगके छींटे डाला करती थीं, यह क्रम जब व्यवस्थापनने मेरा कक्ष परिवर्तित किया तो वहां भी चलता ही रहा !

* कभी-कभी कुछ प्रवचनके आयोजक विशेषकर जो राजस्थानसे होते हैं वे ‘हेरिटेज होटल’में हमें अत्यधिक रुचि एवं प्रेमसे रुकवाते हैं; परन्तु ऐसे विश्राम गृहकी आध्यात्मिक स्थिति अत्यधिक भयावह होती है, इस सन्दर्भमें एक अनुभूति साझा कर रही हूं । ख्रिस्ताब्द २०१२ में फेसबुककी मित्र सूचीके माध्यमसे परिचित एक व्यक्तिने जोधपुर नगरमें मेरे प्रवचन करवानेकी इच्छा दर्शाई; परन्तु उनका संयुक्त परिवार था और उनके घरमें एक तो कोई मुझसे परिचित नहीं था और साथ ही घरका वातावरण भी अत्यधिक तनावपूर्ण रहता था; अतः वे चाहकर भी मुझे अपने घरमें रुकवानेमें समर्थ नहीं थे । मैं बडे और वैभवशाली विश्राम गृहमें रुकनेकी अपेक्षा किसी साधकके घर रुकना अधिक उचित समझती हूं, इससे दो लाभ होते हैं, एक तो मुझे विश्राम गृहकी अपेक्षा अल्प प्रमाणमें कष्ट होता है और दूसरा उस घरके सदस्योंको सत्संग मिल जाता है, जिससे उनकी वास्तुकी भी शुद्धि हो जाती है । यद्यपि आज सभीके घरोंमें अत्यधिक अनिष्ट शक्तियोंके कष्ट होनेके कारण प्रथम रात्रि मेरे लिए कष्टप्रद ही रहता है; किन्तु मेरा सोचना है कि यदि मेरे थोडे कष्ट सहन करनेसे उस घरके सदस्योंकी वास्तु थोडे कालके लिए शुद्ध हो जाए तो मुझे वह कष्ट मान्य है । सूक्ष्म जगतके सम्बन्धमें जानकारी और आपके आध्यात्मिक स्तरके अनुरूप ही आपको कष्ट होता है, यह अध्यात्मशास्त्रका एक सिद्धान्त है । सामान्यतः मेरे श्रीगुरुका मेरे ऊपर कवच देखकर ही अनिष्ट शक्तियां, उनसे गति हेतु मुझे कष्ट देती हैं और मेरे श्रीगुरु इतने दयालु हैं कि मुझे कष्ट देनेवाली शक्तियोंको उनकी वृत्ति अनुरूप या तो उन्हें गति देते हैं या उन्हें दण्डित करते हैं; इसीलिए उन्हें सप्तर्षियोंने भी अवतार कहा है । यातना सह रहे स्थूल और सूक्ष्म जगतके जीवात्माओंको गति देकर उद्धार करना अर्थात कल्याण करना एवं दुष्ट शक्तियोंको दण्ड देना, यह अवतारोंका मुख्य कार्य होता है ।
जोधपुरके आयोजकने मुझे एक पुराने राजप्रासादमें (महलमें), जिसे अब एक ‘हेरिटेज होटल’का स्वरूप दे दिया गया था, उसमें रुकवानेका प्रबन्ध किया था । जब वे मुझे लेने रेलयान स्थानक (रेलवे स्टेशन) आए तो उन्होंने अत्यधिक प्रसन्न होकर कहा “मैंने आपके रुकनेकी व्यवस्था एक सुप्रसिद्ध ‘हेरिटेज होटल’में (पुरातन धरोहर जिसे विश्राम गृहका प्रारूप दे दिया गया हो) करवाया है ।” वैसे वे स्वयं भी एक उन्नत हैं, आध्यात्मिक दृष्टिसे उनका आध्यात्मिक स्तर ५०% से ऊपर था और वे एक वास्तु विशारद एवं तन्त्रमार्गी साधक भी हैं, तथापि उनकी ओरसे इस प्रकारकी रुकनेकी व्यवस्थाको मैंने ईश्वरेच्छा मान, उनके साथ उस विश्राम गृहमें गई । उन्होंने मेरे लिए अपने भाव अनुरूप एक आरामदायक कक्ष चुना था; परन्तु वह कक्ष आध्यात्मिक दृष्टिसे अत्यधिक कष्टप्रद प्रतीत हुआ, उससे एक विचित्र प्रकारकी सूक्ष्म दुर्गन्ध आ रही थी और उसमें हवा और प्राकृतिक प्रकाश हेतु खिडकी भी नहीं थी तो मैंने अपनी अडचन, उनके एक परिचितके माध्यमसे जो उस समय हमारे साथ थीं, उनसे बताई, उन्होंने विश्राम गृहके व्यवस्थापकको बुलाकर कोई ‘अच्छा एवं मेरे मनोनुकूल कक्ष’ दिखाने हेतु कहा । तीन-चार कक्ष देखनेके पश्चात एक कक्ष, जिसमें सभी कक्षोंकी अपेक्षा थोडा अल्प प्रमाणमें कष्ट था, उसके लिए मैंने हामी भरी । रातभरकी यात्रासे मैं थकी हुई थी; अतः प्रसारमें जानेसे पूर्व उनसे थोडी देरके लिए स्नान और विश्रामकी आज्ञा मांगी । मैंने कक्षका निरीक्षण तो कर लिया था; परन्तु जब स्नानगृह, जिसमें शौचालय संयुक्त था, उसे देखा तो माथेपर हाथ रख लिया, वह तो जैसे सम्पूर्ण विश्रामगृहकी सभी अनिष्ट शक्तियोंका मूल गढ था, मैं मन ही मन हंसने लगी, मैंने बुद्धिमानी करनेका प्रयास किया था; इसलिए अनिष्ट शक्तियोंने मुझे उस कक्षकी माया दिखाकर उल्लू बनाया था । मैं उस कक्षमें तीन दिवस रही, वहांका स्नानगृह अत्यधिक सुन्दर और स्वच्छ था; किन्तु वहांसे जो सूक्ष्म दुर्गन्ध आ रही थी, वह सामान्यतः पिशाचोंसे आती है, जितने समय उस कक्षमें रहती थी, उस स्नानगृहमें सनातन संस्थाकी वास्तुशुद्धि उदबत्ती जलाते रहती थी, तब भी वहांकी अनिष्ट शक्तियोंने मुझे तीन बार स्नानगृहमें धक्का देकर गिरानेका प्रयत्न किया और ईश्वरीय कृपासे मैं प्रत्येक बार बच गई, वह स्नानगृह इस प्रकार बना था कि उसमें तीन स्तर थे, प्रथम स्तरपर हस्तप्रक्षालन हेतु बेसिन था, तीन सीढियोंसे नीचे उतरनेपर शौच हेतु कमोड था और पुनः तीन सीढियोंके पश्चात स्नानके लिए ‘बाथ-टब’ था, बाह्य रूपसे देखनेसे वह स्नानगृह अत्यधिक सुन्दर लगता था; परन्तु आध्यात्मिक दृष्टिसे भयावह था; यदि मैंने उसमें वास्तुशुद्धिकी उदबत्ती सतत नहीं जलाई होती तो मेरी दुर्घटना होनी तो वहां निश्चित ही थी !

* ख्रिस्ताब्द २०१२ में हम नेपाल गए थे, वहां हमारे साथ एक साधिका भी गईं थीं । जनकपुरमें हमें एक दिवसके लिए एक विश्राम गृहमें रुकना था । विश्राम गृहमें हमने तीन कक्ष परिवर्तित किए तब जाकर एक कक्ष जिसमें सबसे अल्प प्रमाणमें कष्ट था, उसमें अपना सामान रखवाया; परन्तु जब हम उसके स्नानगृहमें गए तो पाया कि उसमें अत्यधिक कष्ट था । हमारे साथ जो साधिका थीं, उन्होंने उपासनाके माध्यमसे साधना आरम्भ ही की थी; अतः मैंने उन्हें सतर्क करते हुए कहा कि आप जब भी स्नानगृह या शौचालयका उपयोग करें तो नामजप अवश्य किया करें; किन्तु उन्होंने मेरी बात उतनी गम्भीरतासे नहीं ली; क्योंकि वे एक श्रमिक यूनियनकी नेत्री हैं व अपने कार्य हेतु अनेक बार विश्राम गृहोंमें रुका करती हैं । वे असतर्क थीं, परिणाम यह हुआ कि अगले दिवस प्रातःकाल उन्हें शौचालयकी दो सीढियोंसे किसीने धक्का दे दिया और वे गिर पडीं, इसकारण उन्हें अगले एक सप्ताह पांव व कमरमें अत्यधिक वेदना रही ।
यह तो मैंने कुछ प्रसंगोंका आपके समक्ष उल्लेख किया है, ऐसी अनेक अनुभूतियां हमें धर्मप्रसारके मध्य हो चुकी हैं ।
साधारणतः होटलके कक्षमें सभी प्रकारके लोग आते हैं और कई प्रकारके कुकर्म भी होते हैं; अतः साधकोंकी साधनाका लाभ लेकर गति पाने हेतु या साधकको कष्ट देने हेतु आस-पासकी अनिष्ट शक्तियां साधकपर आक्रमण करती हैं और उनके लिए नींदमें यह करना और भी सरल होता है ।
जब भी हम किसी होटलमें रुकते हैं तो सोनेसे पहले निम्नलिखित आध्यात्मिक उपाय कर सोना चाहिए –
१. प्रवासके समय अपने ओढने और बिछानेवाली चादर अपने साथ अवश्य रखें ! होटलके बिछावनपर न सोएं, चाहे वह कितना भी मूल्यवान, नूतन या स्वच्छ क्यों न हो ।
२. निर्धारित स्थलपर पहुंचते ही, अपने इष्टका या गुरुका चित्र होटलके कक्षमें लगा दें । इससे वहांके वास्तुकी शुद्धि होने लगेगी और वास्तु कुछ सीमातक पवित्र हो जाएगा ।
३. सबसे महत्त्वपूर्ण है कि सोनेसे पूर्व बिछावनपर बैठकर १५ मिनट अपने गुरुमन्त्रका या इष्टदेवताके मन्त्रका जपकर सोएं और प्रार्थना इस प्रकार करें, “हे भगवन ! अभी १५ मिनिट जो मैं जप करने जा रही हूं या जा रहा हूं, उस जपसे आज सम्पूर्ण रात्रि मेरा अनिष्ट शक्तियोंसे रक्षण हो और मैं प्रातः निर्धारित समयपर उठ पाऊं और सम्पूर्ण रात्रि मेरे चारों ओर आपके अस्त्र एवं शस्त्रसे कवच-निर्माण हो, ऐसी आप कृपा करें !” ध्यानमें रखें कि लेटकर इस कवच हेतु जप न करें, क्योंकि यह जप पूर्ण करनेसे पहले ही अनिष्ट शक्तियां हमें सुला देती हैं, जिससे उनके आक्रमणका कार्य रात्रिमें सरलतासे होता रहे और वे हमें सम्पूर्ण रात्रि कष्ट देती रहें ।
४. अपने बिछावनके चारों ओर देवताओंके सात्त्विक नामजपकी पट्टियां लगा सकते हैं, इसे भी अपने साथ लेकर यात्रा करें ! (यह हमारे पास उपलब्ध हैं)
५. रात्रिमें अपने लैपटॉपपर या सीडी प्लेयरपर, सात्त्विक नामजपकी सीडी ‘रिपीट’ मोडपर लगाकर सो सकते हैं । (नामजपकी ध्वनिचक्रिका अर्थात CD हमारे पास उपलब्ध हैं)
६. किसी यज्ञकी विभूति या मन्दिरसे प्राप्त विभूति भी साथ लेकर चलें । हथेलीपर चुटकीभर विभूति रखकर अपने बिछावनके चारों ओर सोनेसे पूर्व फूंककर सोएं ! ऐसा करनेसे बिछावनके चारों ओरका काला आवरण नष्ट हो जाता है ।
७. विभूतिका टीका लगाकर भी सो सकते हैं ।



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