किसी भी सिद्धान्त अथवा किसी भी तथ्यको आंखें बन्दकर मान लेना, बुद्धिमानोंका लक्षण नहीं है । हम वेदोंके सिद्धान्तोंकी पुष्टि, वेदोंके ही साक्ष्यद्वारा करेंगे जिससे हमारी भ्रान्तिका निराकरण हो सके ।
शङ्का १ : क्या वेदोंमें मांसभक्षणका विधान है ?
समाधान : वेदोंमें मांसभक्षणका स्पष्ट निषेध किया गया है । अनेक वेद मन्त्रोंमें स्पष्ट रूपसे किसी भी प्राणीको मारकर खानेका स्पष्ट निषेध किया गया है । उदाहरणार्थ,
हे मनुष्यो ! जो गौ आदि पशु हैं, वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं ।
– यजुर्वेद १/१
जो लोग परमात्माके सहचर प्राणीमात्रको अपनी आत्माके तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं, वैसे ही अन्योंमें भी व्रतते हैं ।
– यजुर्वेद ४०/७
हे दांतो ! तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उडद खाओ अथवा तिल खाओ । तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थोंका भाग है । तुम किसी भी नर अथवा मादाकी कभी हिंसा मत करो ।
– अथर्ववेद ६/१४०/२
वे लोग, जो नर तथा मादा, भ्रूण तथा अण्डोंके नाशसे उपलब्ध हुए मांसको अपक्व अथवा पकाकर खाते हैं, हमें उनका विरोध करना चाहिए ।
– अथर्ववेद ८/६/२३
निर्दोषोंको मारना निश्चित ही महापाप है । हमारे गाय, घोडे तथा पुरुषोंको मत मार ।
– अथर्ववेद १०/१/२९
उपर्युक्त मन्त्रोंमें स्पष्ट रूपसे यह सन्देश दिया गया है कि वेदोंके अनुसार मांसभक्षण निषिद्ध है ।
शङ्का २ : क्या वेदोंके अनुसार यज्ञोंमें पशुबलिका विधान है ?
समाधान : यज्ञकी महताका गुणगान करते हुए वेद कहते हैं कि सत्यनिष्ठ विद्वान लोग यज्ञोंद्वारा ही पूजनीय परमेश्वरकी पूजा करते हैं ।
यज्ञोंमें सब श्रेष्ठ धर्मोंका समावेश होता है । यज्ञ शब्द जिस ‘यज्’ धातुसे बना है, उसमें देवपूजा, संगतीकरण तथा दान हैं; इसलिए ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ एवं ‘यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म’ इत्यादि कथन मिलते हैं । यज्ञ न करनेवालोंके लिए वेद कहते हैं कि जो यज्ञमयी नौकापर चढनेमें समर्थ नहीं होते, वे कुत्सित, अपवित्र आचरणवाले होकर, यहीं इस लोकमें नीचे-नीचे गिरते जाते हैं ।
एक ओर वेद, यज्ञकी महिमाको परमेश्वरकी प्राप्तिका साधन बताते हैं, वहीं दूसरी ओर वैदिक यज्ञोंमें पशुबलिका विधान भ्रान्त धारणा मात्र है ।
यज्ञमें पशुबलिका विधान मध्यकालकी देन है । प्राचीनकालमें यज्ञोंमें पशुबलि आदि प्रचलित नहीं थे । मध्यकालमें जब अवनतिका (पतनका) कालचक्र आया, तब मांसाहार, मदिरा आदिका प्रयोग प्रचलित हो गया ।
सायण, महीधर आदिके वेदभाष्यमें मांसाहार, हवनमें पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदिका वध करनेकी अनुमति थी, जिसे देखकर मैक्समुलर, विल्सन, ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानोंने वेदोंसे मांसाहारका अत्यधिक प्रचारकर न केवल पवित्र वेदोंको कलङ्कित किया; अपितु लाखों निर्दोष प्राणियोंको मरवाकर मनुष्य जातिको पापी बना दिया ।
मध्यकालमें हमारे देशमें वाममार्गका प्रचार हो गया था, जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदिसे मोक्षकी प्राप्ति मानता था । आचार्य सायण आदि वैसे तो विद्वान थे; किन्तु वाम मार्गसे प्रभावित होनेके कारण वेदोंमें मांसभक्षण एवं पशुबलिका विधान दर्शा बैठे ।
निरीह प्राणियोंके इस प्रकार वध एवं बोझिल कर्मकाण्डको देखकर ही बुद्ध एवं महावीरने वेदोंको हिंसासे लिप्त मानकर, उन्हें अमान्य घोषित कर दिया । इससे वेदोंकी बडी हानि हुई एवं अवैदिक मतोंका प्रचार आरम्भ हुआ; फलस्वरूप क्षत्रिय धर्मका नाश हुआ तथा देशको परतन्त्रता सहन करनी पडी ।
इस प्रकार वेदोंमें मांसभक्षणके मिथ्या प्रचारके कारण देशकी कितनी हानि हुई, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है । एक ओर वेदोंमें जीवरक्षा तथा निरामिष भोजनका आदेश है, वहीं दूसरी ओर, इसके विपरीत, उन्हीं वेदोंमें पशु आदिकी यज्ञोंमें बलि तर्कसङ्गत नहीं लगती है ।
वेदभाष्यमें मांसभक्षण, पशुबलि आदिको लेकर जो भ्रान्ति देशमें प्रसृत की थी, जिसे कुछ विचारकोंने निवारणकर साधारण जनमानसके मनमें वेदोंके प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न किया । वेदोंमें, यज्ञोंमें पशुबलिके विरोधमें अनेक मन्त्रोंका विधान हैं, उदाहरणार्थ :-
यज्ञके विषयमें ‘अध्वर’ शब्दका प्रयोग वेद मन्त्रोंमें हुआ है, जिसका अर्थ निरुक्तके अनुसार हिंसारहित कर्म है ।
हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! तू हिंसारहित यज्ञोंमें (अध्वरमें) ही व्याप्त होता है तथा ऐसे ही यज्ञोंको सत्यनिष्ठ विद्वान सदा स्वीकार करते हैं ।
– ऋग्वेद १/१/४
यज्ञ हेतु ‘अध्वर’ शब्दका प्रयोग ऋग्वेद १/१/८, ऋग्वेद १/१४/२१, ऋग्वेद १/१२८/४, ऋग्वेद १/१९/१, ऋग्वेद ३/२१/१, सामवेद २/४/२, अथर्ववेद ४/२४/३, अथर्ववेद १/४/२ इत्यादि मन्त्रोंमें इसी प्रकारसे हुआ है । ‘अध्वर’ शब्दका प्रयोग चारों वेदोंमें अनेक मन्त्रोंमें होना, हिंसारहित यज्ञका उपदेश है ।
हे प्रभु ! मुझे सब प्राणी, मित्रकी दृष्टिसे देखें ! मैं समस्त प्राणियोंको मित्रकी प्रेममय दृष्टिसे देखूं, हम सभी, सभीको परस्पर मित्रकी दृष्टिसे देखें !
– यजुर्वेद ३६/१८
यज्ञको श्रेष्ठतम कर्मके नामसे पुकारते हुए उपदेश है कि पशुओंकी रक्षा करें !
– यजुर्वेद १/१
पति-पत्नी हेतु उपदेश है कि पशुओंकी रक्षा करें !
– यजुर्वेद ६/११
हे मनुष्य ! तू दो पांववाले अर्थात अन्य मनुष्यों एवं चार पांववाले अर्थात पशुओंकी भी सदा रक्षा कर ।
– यजुर्वेद १४/८
चारों वेदोंमें दिए गए अनेक मन्त्रोंसे यह सिद्ध होता है कि यज्ञोंमें हिंसारहित कर्म करनेका विधान है एवं मनुष्योंको अन्य पशु-पक्षियोंकी रक्षा करनेका स्पष्ट आदेश है ।
शङ्का ३ : क्या वेदोंमें वर्णित अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध इत्यादि यज्ञोंमें क्रमशः घोडा, मनुष्य, बकरी तथा गौकी बलि देनेका विधान नहीं है ? मेधका अर्थ है, मारना; अतः इससे यह सिद्ध होता है ।
समाधान : मेध शब्दका अर्थ मात्र हिंसा नहीं है । मेध शब्दके ३ अर्थ हैं – १. मेधा अथवा शुद्ध बुद्धिको बढाना २. लोगोंमें एकता अथवा प्रेमको बढाना तथा ३. हिंसा । इसलिए मेधसे मात्र हिंसा शब्दका अर्थ ग्रहण करना उचित नहीं है ।
जब यज्ञको अध्वर अर्थात ‘हिंसारहित’ कहा गया है, तब उसके सन्दर्भमें ‘मेध’का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाए ? बुद्धिमान व्यक्ति, मेधावी कहे जाते हैं; इसीकारण बच्चियोंके नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखे जाते हैं । तो कृपया आप ही विचार करें कि क्या ये नाम उनके हिंसक होनेके कारण रखे जाते हैं ? अथवा बुद्धिमान होनेके उद्देश्यसे ?
अश्वमेध शब्दका अर्थ, यज्ञमें अश्वकी बलि देना नहीं है; अपितु शतपथ १३/१/६/३ एवं १३/२/२/३ के अनुसार, राष्ट्रके गौरव, कल्याण एवं विकास हेतु किए जानेवाले सभी कार्य ‘अश्वमेध’ हैं ।
इसी प्रकार गोमेधका अर्थ, यज्ञमें गौकी बलि देना नहीं है; अपितु अन्नको दूषित होनेसे बचाना, अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखना, सूर्यकी किरणोंका उचित उपयोग करना तथा धरतीको पवित्र अथवा स्वच्छ रखना, ‘गोमेध’ यज्ञ है । ‘गो’ शब्दका एक और अर्थ है, पृथ्वी । पृथ्वी एवं उसके पर्यावरणको स्वच्छ रखना भी ‘गोमेध’ कहलाता है ।
अब नरमेधका अर्थ मनुष्यकी बलि देना नहीं है; अपितु मनुष्यकी मृत्युके पश्चात उसके शरीरका वैदिक रीतिसे दाह-संस्कार करना, ‘नरमेध’ यज्ञ है । मनुष्योंको उत्तम कार्य हेतु प्रशिक्षित एवं सङ्गठित करना, नरमेध, पुरुषमेध अथवा नृमेध यज्ञ कहलाता है ।
अजमेधका अर्थ बकरी आदिकी यज्ञमें बलि देना नहीं है; अपितु इसका अर्थ है बीज, अनाज अथवा धान आदि कृषिकी उपज बढाना । अजमेधका सीमित अर्थ अग्निहोत्रमें धान आदिकी आहूति देना है ।
शङ्का ४ : यजुर्वेद मन्त्र २४/२९ में ‘हस्तिन आलम्भते’ अर्थात हाथियोंको मारनेका विधान है ।
समाधान : ‘लभ्’ धातुसे बननेवाले आलम्भ शब्दका अर्थ मारना नहीं; अपितु अच्छी प्रकारसे प्राप्त करना, स्पर्श करना अथवा देना होता है । हस्तिन शब्दका अर्थ यदि हाथी लें, तो इस मन्त्रमें राजाको अपने राज्यके विकास हेतु हाथी आदिको प्राप्त करना, अपनी सेनाओंको सुदृढ करना बताया गया है । यहां हिंसाका कोई विधान ही नहीं है ।
पारस्कर सूत्र २/२/१६ में कहा गया है कि आचार्य, ब्रह्मचारीका आलम्भ अर्थात हृदयका स्पर्श करते हैं । यहां आलम्भका अर्थ स्पर्श आया है ।
पारस्कर सूत्र १/८/८ में ही आया है कि वर, वधूके दक्षिण कन्धेके ऊपर हाथ ले जाकर उसके हृदयका स्पर्श करे । यहां भी आलम्भका अर्थ स्पर्श ही आया है ।
यदि यहां आलम्भ शब्दका अर्थ, मारना ग्रहण करें, तो क्या यह युक्तिसङ्गत एवं तर्कसङ्गत सिद्ध होगा ? कृपया विचार करें । इससे सिद्ध होता है कि इस शङ्कामें प्रयुक्त आलम्भ शब्दका अर्थ ग्रहण करना, प्राप्त करना अथवा स्पर्श करना ही है ।
शङ्का ५ : वेद, ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रन्थोंमें ‘संज्ञपन’ शब्द आया है, जिसका अर्थ पशुका वध है ?
समाधान : संज्ञपन शब्दका अर्थ है, ज्ञान देना, दिलाना अथवा मेल कराना । अथर्ववेद ६/१०/१४-१५ में लिखा है, “तुम्हारे मनका ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार मेल (संज्ञपन) हो, तुम्हारे हृदयका ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार मेल (संज्ञपन) हो ।”
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण १/४ में एक आख्यानिका है, जिसका अर्थ है, “मैं वाणी, तुझ मनसे अधिक अच्छी हूं, तू जो कुछ मनमें चिन्तन करता है, मैं उसे प्रकट करती हूं, मैं उसे अच्छी प्रकारसे दूसरोंको जतलाती हूं । संज्ञपन शब्दका मेलके स्थानपर हिंसापरक अर्थ करना, अज्ञानताका परिचायक है ।
शङ्का ६ : वेदोंमें गोघ्न अर्थात गायोंके वध करनेका आदेश है ।
समाधान : गोघ्न शब्दमें ‘हन्’ धातुका प्रयोग है, जिसके दो अर्थ बनते हैं, हिंसा एवं गति । गोघ्नमें उसका अर्थ है, गति अथवा ज्ञान, गमन, प्राप्ति । मुख्य भाव यहां प्राप्तिका है अर्थात जिसे उत्तम गौ प्राप्त कराई जाए ।
हिंसाके प्रकरणमें वेदोंमें उपदेश है कि गौकी हत्या करनेवालोंसे दूर रहें ।
ऋग्वेद १/११४/१० में लिखा है, “जो गोघ्न (गौकी हत्या करनेवाला) है, वह नीच पुरुष है । वह तुमसे दूर ही रहे ।”
वेदोंके अनेक उदाहरणोंसे ज्ञात होता है कि ‘हन्’का प्रयोग किसीके निकट जाने अथवा समीप पहुंचने हेतु भी किया जाता है । उदाहरणार्थ, अथर्ववेद ६/१०१/१ में पतिको पत्नीके निकट जानेका उपदेश है ।
इस मन्त्रका यह अर्थ कि ‘पति, पत्नीके समीप जाए’, उचित प्रतीत होता है न कि ‘पतिद्वारा पत्नीको मारना’ उचित सिद्ध होता है; इसलिए अनुचित परिप्रेक्ष्यमें हननका मात्र हिंसा अर्थ प्रयोग करना, भ्रम फैलानेके समान है ।
शङ्का ७ : वेदोंमें, अतिथिको भोजनमें गौ आदिका मांस पकाकर खिलानेका आदेश है ।
समाधान – ऋग्वेदके मन्त्र १०/६८ /३ में ‘अतिथिनीर्गा:’का अर्थ, ‘अतिथियोंके लिए गौएं’, ऐसा किया गया है, जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्तिके आनेपर गौको मारकर उसके मांससे उसे तृप्त किया जाता था ।
यहां जो भ्रम उत्पन्न होता है, उसका मुख्य कारण ‘अतिथिनी’ शब्दको समझनेकी चूक है । यहां उचित अर्थ बनता है : ‘ऐसी गौएं जो अतिथियोंके समीप दानार्थ लाई जाएं, उन्हें दान की जाएं !’
मोनियर विलियम्सने (Monier Williams) भी अपनी संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोशमें ‘अतिथिग्व’का अर्थ : “To whom guests should go” (P.14) अर्थात ‘जिसके पास अतिथि प्रेमवश जाएं’, ऐसा कहा है । श्री. ब्लूमफील्ड (Bloomfield) ने भी इसका अर्थ : “Presenting cows to guests” अर्थात ‘अतिथियोंको गौएं भेंट करनेवाला’, ऐसा ही कहा है । अतिथिको गौमांस परोसना, कपोल-कल्पित है ।
शङ्का ८ : वेदोंमें बैलोंको मारकर भक्षण करनेका (खानेका) आदेश है ?
समाधान – यह भी एक भ्रान्ति है कि वेदोंमें बैलोंको भक्षण करनेका (खानेका) आदेश है । वेदोंमें, जिस प्रकार गौके लिए ‘अघन्या’ अर्थात ‘न मारने योग्य’ शब्दका प्रयोग किया गया है, उसी प्रकार बैलके लिए ‘अघ्न्य’ शब्दका प्रयोग किया गया है ।
यजुर्वेद १२/७३ में ‘अघन्या’ शब्दका प्रयोग बैलके लिए हुआ है । इसकी पुष्टि सायणाचार्यने काण्वसंहितामें भी की है । इसी प्रकार, अथर्ववेद ९/४/१७ में लिखा है कि बैल श्रृङ्गोंसे (सिंगोंसे) अपनी रक्षा स्वयं करता है; परन्तु मानव समाजको भी उसकी रक्षामें सहभागी होना चाहिए ।
अथर्ववेद ९/४/१९ मन्त्रमें बैलके लिए ‘अघन्य’ एवं गौके लिए ‘अघन्या’ शब्दोंका वर्णन मिलता है । यहां लिखा है कि ब्राह्मणोंको ऋषभका (बैलका) दान करके, दाता अपने आपको स्वार्थ त्यागद्वारा श्रेष्ठ बनाता है । वह अपनी गोशालामें बैलों तथा गौओंकी पुष्टि देखता है ।
अथर्ववेद ९/४/२० मन्त्रमें जो सत्पात्रको वृषभका (बैलका) दान करता है, उसकी गौएं व सन्तान आदि उत्तम रहती हैं ।
इन उदाहरणोंसे यह सिद्ध होता है कि गौओंके साथ-साथ बैलोंकी रक्षाका भी वेद सन्देश देते हैं ।
शङ्का ९ : वेदमें /वशावन्ध्या अर्थात वृद्ध गौ अथवा बैलको मारनेका विधान है ?
समाधान : शङ्काका कारण ऋग्वेद ८/४३/११ मन्त्रके अनुसार, वन्ध्या गौओंकी अग्निमें आहूति देनेका विधान बताया गया है । यह सर्वथा अशुद्ध है ।
निघण्टु ३/३ के अनुसार, इस मन्त्रका वास्तविक अर्थ है कि ‘जैसे महान सूर्य आदि भी जिसके (वशा) प्रलयकालमें अन्न व भोज्यके समान हो जाते हैं’, इसका शतपथ ५/१/३ के अनुसार अर्थ है, ‘पृथ्वी भी जिसके (वशा) अन्नके समान भोज्य है, ऐसे परमेश्वरकी नमस्कारपूर्वक स्तुतियोंसे सेवा करते हैं ।’
वेदोंके विषयमें इस भ्रान्तिका मुख्य कारण वशा, उक्षा, ऋषभ आदि शब्दोंके अर्थ न समझ पाना है । यज्ञ प्रकरणमें उक्षा तथा वशा, दोनों शब्दोंके औषधिपरक अर्थका ग्रहण करना चाहिए, जिन्हें अग्निमें डाला जाता है । सायणाचार्य एवं मोनियर विलियम्सके अनुसार, ‘उक्षा’ शब्दके अर्थ सोम, सूर्य, ऋषभ नामक औषधि हैं ।
‘वशा’ शब्दके अन्य अर्थ अथर्ववेद १/१०/१ के अनुसार, ईश्वरीय नियम तथा नियामक शक्ति हैं । शतपथ १/८/३/१५ के अनुसार, ‘वशा’का अर्थ पृथ्वी भी है । अथर्ववेद २०/१०३/१५ के अनुसार, ‘वशा’का अर्थ सन्तानको वशमें रखनेवाली उत्तम स्त्री भी है ।
इस सत्यार्थको न समझकर, वेद मन्त्रोंका अनर्थ करना निन्दनीय है ।
शङ्का १० : वेदादि धर्मग्रन्थोंमें ‘माष’ शब्दका उल्लेख है, जिसका अर्थ मांस खाना है ।
समाधान : ‘माष’ शब्दका प्रयोग ‘माषौदनम्’के रूपमें हुआ है । इसे परिवर्तितकर किसी मांसभक्षीने ‘मांसौदनम्’ अर्थ कर दिया है । यहां ‘माष’ एक दालके समान वर्णित है; इसलिए यहां ‘मांस’का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।
आयुर्वेद (सुश्रुत संहिता शरीर अध्याय २), गर्भवती स्त्रियोंके लिए मांसाहारको कठोरतासे मना करता है तथा उत्तम सन्तान पाने हेतु ‘माष’ (दाल) सेवनको हितकारी कहता है । इससे क्या स्पष्ट होता है ? यही कि ‘माष’ शब्दसे तात्पर्य मांसाहार नहीं; अपितु दाल आदिके सेवनका आदेश है । तथापि यदि कोई ‘माष’को ‘मांस’ ही कहना चाहे, तब भी ‘मांस’को निरुक्त ४/१/३ के अनुसार, मनन साधक, बुद्धिवर्धक तथा मनको अच्छी लगनेवाली वस्तु, जैसे फलका गूदा, खीर आदि कहा गया है । प्राचीन ग्रन्थोंमें मांस अर्थात गूदा खानेके अनेक प्रमाण मिलते हैं, जैसे चरक संहिता देखें, इसमें आम्रमांसं (आमका गूदा), खजूरमांसं (खजूरका गूदा) इत्यादि हैं ।
तैत्तरीय संहिता २/३२/८ में दही, मधु (शहद) तथा धानको मांस कहा गया है ।
इससे यही सिद्ध होता है कि वेदादि शास्त्रोंमें जहां ‘माष’ शब्द आता है अथवा ‘मांस’के रूपमें भी जिसका प्रयोग हुआ है, उसका अर्थ दाल अथवा फलोंका मध्य भाग अर्थात गूदा ही है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं ।
शङ्का ११ : क्या वेदोंके अनुसार इंद्र देवता बैलका भक्षण करते हैं ?
समाधान : इंद्रद्वारा बैलके भक्षणके समर्थनमें ऋग्वेद १०/२८/३ तथा १०/८६/१४ मन्त्रोंका उदाहरण दिया जाता है । यहांपर वृषभ तथा उक्षन् (उक्षा) शब्दोंके अर्थसे अनभिज्ञ व्यक्ति, उनका अर्थ ‘बैल’ कर देते हैं । ऋग्वेदमें अनुमानत: २० स्थलोंपर अग्निको, ६५ स्थलोंपर इंद्रको, ११ स्थलोंपर सोमको, ३ स्थलोंपर पर्जन्यको, ५ स्थलोंपर बृहस्पतिको तथा ५ स्थलोंपर रुद्रको ‘वृषभ’ कहा गया है । व्याख्याकारोंके अनुसार, वृषभका अर्थ ‘यज्ञ’ है ।
उक्षन् शब्दका अर्थ ऋग्वेदमें अग्नि, सोम, आदित्य, मरुत आदि हेतु प्रयोग हुआ है । जब वृषभ और उक्षन् शब्दोंके इतने विभिन्न अर्थ वेदोंमें दिए गए हैं, तब उनका व्यर्थ ही बैल अर्थमें प्रयोगकर, उसे इंद्रको भक्षण करवाना, युक्तिसङ्गत एवं तर्कपूर्ण नहीं है ।
इसी सन्दर्भमें ऋग्वेदमें इंद्रके भोज्य पदार्थ, निरामिषरूपी धान, करम्भ, पुरोडाश तथा पेय सोमरस है, न कि बैलको बताया गया है ।
शङ्का १२ : वेदोंमें गौका क्या स्थान है ?
समाधान : यजुर्वेद ८/४३ में गायका नाम इडा, रंता, हव्या, काम्या, चन्द्रा, ज्योति, अदिति, सरस्वती, महि, विश्रुति तथा अघन्या कहा गया है । स्तुतिकी पात्र होनेके कारण इडा, रमयित्री होनेके कारण रंता, इसके दूधकी यज्ञमें आहूति दी जानेके कारण हव्या, चाहने योग्य होनेके कारण काम्या, हृदयको प्रसन्न करनेके कारण चन्द्रा, अखण्डनीय होनेके कारण अदिति, दुग्धवती होनेके कारण सरस्वती, महिमशालिनी होनेके कारण महि, विविध रूपोंमें श्रुत होनेके कारण विश्रुति तथा न मारी जाने योग्य होनेके कारण अघन्या कहलाती है ।
‘अघन्या’ शब्दमें गायका वध न करनेका सन्देश इतना स्पष्ट है कि विदेशी लेखक भी इसे बहुत ही सरलतासे स्वीकार करते हैं ।
हे गौओं ! तुम पूज्य हो, तुम्हारी पूज्यता मैं भी प्राप्त करूं । – यजुर्वेद ३/२०
मैं विवेकवान मनुष्यको कह देता हूं कि तू विनीत, निरपराध गायकी हत्या मतकर, वह अदिति है, काटने-चीरने योग्य नहीं है ।
– ऋग्वेद ८/१०१/१५
उस देवी गौको मनुष्य अल्पबुद्धि होकर मारे-काटे नहीं । – ऋग्वेद ८/१०१/१६
निरपराधकी हत्या बडी भयङ्कर होती है; अतः तू हमारे गाय, घोडे तथा पुरुषको मत मार ।
– अथर्ववेद १०/१/२९
गौएं वधशालामें न जाएं ! – ऋग्वेद ६/२८/४
गायका वध मतकर ! – यजुर्वेद १३/४३
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